गुरुदत्त ने ही रचा था ‘कागज के फूल’ से सिल्वर स्क्रीन का यथार्थ

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कागज के फूल पहली भारतीय फिल्म है जिसमें सिनेमास्कोप तकनीक का इस्तेमाल हुआ


कागज के फूल गुरुदत्त द्वारा निर्देशित आखिरी फिल्म थी. जिसे 1959 में रिलीज किया गया था। कागज के फूल की व्यावसायिक और आलोचनात्मक टिप्पणियों ने गुरुदत्त के भीतर इतनी निराशा और हताशा पैदा कर दी थी. यही वजह से गुरुदत्त ने अपने आपको बॉक्स ऑफिस के लिए अछूत मान लिया था। इस फिल्म की असफलता ने गुरुदत्त को इस कदर गहराई से तोड़ दिया था कि बाद में गुरुदत्त ने आत्महत्या ही कर ली। 

दरअसल कागज के फूल समय से पहले बनी हुई फिल्म है. यह फिल्म सिनेमा की कला और शिल्प में एक अद्भुत रचना है। यह फिल्म उद्योग पर एक कटाक्ष है कि इंडस्ट्री में सब कुछ कितना क्षणभंगुर है

कागज के फूल पहली भारतीय फिल्म है जिसमें सिनेमास्कोप तकनीक का इस्तेमाल हुआ है। । जिसका उपयोग बीसवीं सेंचुरी फॉक्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड से लाइसेंस के तहत किया गया था। हॉलीवुड में इस तकनीक से बनाई गई पहली फिल्म द राब (1953) थी. कागज के फूल में अपनायी इस सिनेमास्कोप तकनीक के बाद भारत में फिल्म बनाने बनाने का तरीका ही बदल गया।

गुरुदत्त ने जब यह तकनीक ट्वेन्थिएत सेंचुरी फॉक्स खरीदी थी. इस फॉर्मेट में फिल्म बनाने के लिए सबसे पहली कहानी जो चुनी थी, वह थी गौरी। यह फिल्म बांग्ला भाषा में थी। इस फिल्म के किरदार भी खुद गुरुदत्त और उनकी पत्नी गीता दत्त थे। हिरोइन के रूप में यह फिल्म गीता दत्त की पहली फिल्म होती लेकिन यह फिल्म थोड़ी ही शूट हुई थी कि गुरुदत्त को पसंद नहीं आई।

इसके दो गाने भी रिकॉर्ड कर लिए गए थे लेकिन गुरुदत्त परफेक्शिनिस्ट थे. उन्हें अगर कोई काम पसंद नहीं आता था, तो बगैर नफा-नुकसान देखे उसे बंद कर देते थे। इसके तुरंत बाद कागज के फूल की शूटिंग शुरू हो गई थी।

सिमिनेटोग्राफर वीके मूर्ति ने हिंदी फिल्मों में सबसे प्रतिष्ठित फ्रेम देने के लिए अभूतपूर्व भव्य कैनवास का इस्तेमाल किया. वीके मूर्ति ने श्याम-श्वेत स्क्रीन में आदित्य प्रकाश व्यवस्थाओं का ऐसा अद्भुत प्रयोग किया है कि वह भारतीय फ़िल्म इतिहास की धरोहर बन गए। मगर कागज के फूल फ्लॉप होने वाली बेहतरीन फिल्मों में से एक है।

यह अलग बात है कि कागज के फूल के निर्माण के लिए गुरुदत्त ने अपना सब कुछ झोंक दिया था। संगीतकार एसडी बर्मन ने इस फिल्म का संगीत कंपोज किया है। बर्मन साहब ने इस फिल्म को बनाने के लिए गुरुदत्त को मना किया था। जब गुरुदत्त नहीं माने तब बर्मन साहब ने उनसे कहा कि अब गुरुदत्त के साथ यह उनकी आखिरी फिल्म होगी।

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जबकि 1960 में गुरुदत्त और वहीदा की फिल्म चौदहवीं का चांद उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली चौथी फ़िल्म बनी।इस फिल्म के जरिये गुरुदत्त ने कागज के फूल से हुए नुकसान की भरपाई की। 1962 में रिलीज हुई फ़िल्म साहब, बीवी और गुलाम भी सुपर डुपर हिट रही। इस फिल्म ने उस साल बेस्ट फ़िल्म कैटेगरी में नेशनल और फिल्मफेयर अवार्ड दोनों ही जीते। लेकिन कागज के फूल के बाद न तो गुरुदत्त ने कभी किसी फिल्म का निर्देशन किया और न ही उनके माली हालात सुधरे।

कागज के फूल ‘प्यासा’ का विस्तार है, वह दुहराव नहीं है। एक भिन्न क्षेत्र की परिस्थितियों में रचनात्मकता और व्यवसायिक प्रवृत्ति के तनाव और पारिवारिक उलझनों के बीच शेष होते हुए नायक की एक ट्रेजडी है। कागज के फूल और प्यासा दीवानगी और जुनून से बनती हैं। व्यवसाय की सारी कोशिश को हटाकर बनती हैकिसी गणित से नहीं बनती हैं। सफलता के लालच में डूब कर नहीं बनती, सफलता को लात मारकर बनती है। इन सब को पूरा करने के लिए गुरुदत्त दत्त जैसा काबिल और स्वप्नदर्शी निर्देशक ही चाहिए।

कागज के फूल की विश्वसनीयता का कारण उसकी वह कहानी ही है, जिसे परदे पर निर्देशक उस पूरे माहौल को जीवंत बना सका. फिल्म निर्माण की तकनीक और उसके अभिव्यक्ति के साधन कथावस्तु बनते हैं। बहुत कम फिल्मों का प्रारंभ इतना प्रभावशाली और खूबसूरत होता है जैसा इस फिल्म का है।

जीवन के अंतिम क्षणों में जैसे अपनी मृत्यु का वरण करने के लिए ही नायक स्टूडियो में दाखिल होता है। हर इंसान का अपनी जिंदगी में एक नॉस्टैल्जिया होता है। जब नायक अपनी उस दुनिया को देखता है जिसका कभी वह बेताज बादशाह हुआ करता था और जो उसकी बर्बादी का कारण भी बना। नॉस्टैल्जिया और दुःस्वप्न की यह फिल्म संगम है।

वह एक बहुत बड़े परिवार का दामाद है. जहां कुत्तों को वरीयता दी जाती है और दूर से आये दामाद की कोई पूछ नहीं होती।

एक तरफ नायक का सफल जीवन और दूसरी तरफ घर का अपमानित और अकेलापन वाला जीवन।

फिल्म की शुरुआत जैसे होती है और घूमता हुआ कैमरा नायक पर फोकस होता है और उसके जेहन में बसी स्मृतियों का संसार उसके सामने आता है। फ्रेम के बीचों बीच नायक है। पीछे बड़ी-बड़ी बिल्डिंग है जो नायक को ऊंचाई का विस्तार दे रही हैं और नायक मुंह में पाइप दबाए हुए अपने अभिजात्य ढंग से लोगों के सामने पेश होता है।

नायक के पीछे और इर्द-गिर्द उससे मिलने के लिए उसके ऑटोग्राफ पाने के लिए आतुर भीड़। फिर नायक अपनी खुली गाड़ी में अपने स्टूडियो में प्रवेश कर रहा है। स्टूडियो में काम करने वाले उसे सलाम कर रहे हैं। नायक एक कामयाब नायक है और उसकी कामयाबी को कैमरा बोलता है।

एक तरफ नायक का सफल जीवन और दूसरी तरफ घर का अपमानित और अकेलापन वाला जीवन। वह एक बहुत बड़े परिवार का दामाद है. जहां कुत्तों को वरीयता दी जाती है और दूर से आये दामाद की कोई पूछ नहीं होती। अपनी ही बेटी से मिलने को उसको मनाही है। बेटी के स्कूल में भी यह आदेश पहुंचा दिया जाता है कि बेटी अपने पिता से न मिले क्योंकि नायक फिल्मों का नायक है। वह पूछता भी है कि आप लोग फिल्म लाइन को इतना बुरा क्यों समझते हैं। तो सर डीडी वर्मा अखबार पर से अपनी नज़र हटाकर तल्ख स्वर में कहते हैं लुक सुरेश! इस घर में केवल अच्छी बातों का जिक्र होता है वाहियात बातों का नहीं। जब वह अपनी बेटी को अपने साथ रखने की बात कहता है तो उसके ससुर उसे अदालत जाने की सलाह देते हुए कहते हैं कि मुझे ब्रिटिश इंसाफ पर पूरा भरोसा है।

गुरु दत्त की फिल्म निर्माण की रचना यात्रा पर यदि हम गौर करें तो गुरुदत्त अपनी फिल्मों से व्यवसायिक लूट के पक्षधर नहीं थे। उनकी फिल्मों में जहां पहाड़, हरियाली, नदी, झरने होते थे. वहीं सुनसान पार्क, खाली सड़कें, रौशनियों के आवर्त, अकेलापन, उदासी से भरे फ्रेम भी होते थे। कलात्मकता के साथ व्यवसायिक समीकरण में उन्हें राज कपूर जैसी सिद्धहस्तता हासिल थी।

व्यवसायिक फिल्म निर्माण की सीमाओं में भी वह कलात्मकता की रोशनी बिखेर देते थे। राज कपूर और गुरु दत्त की फिल्मों में नायिकाओं का करैक्टर भी बहुत सशक्त होता था। वहां यह नायिकाएं केवल सजी-धजी रूपिकाएँ ही नहीं बल्कि अपने संपूर्ण व्यक्तित्व के साथ खड़ी होती थीं। किसी फिल्म की रचना के लिए यह भी एक महत्वपूर्ण इकाई है। प्यासा और कागज के फूल की नायिकाएँ पर्दे पर नायक जितनी ही महत्वपूर्ण दिखती हैं। साहब, बीवी और गुलाम में भी गुरुदत्त मीना कुमारी को इसी भाव के साथ प्रस्तुत करते हैं।

इन फिल्मों में औरत ही पुरुष को पूर्णता प्रदान करती प्रतीत होती है। इन फिल्मों में स्त्री पुरुष के आंतरिक रिश्ते इतने मानवीय हो उठे हैं कि वहां दैहिक संबंधों की प्रक्रिया की कोई आवश्यकता ही नहीं है। भारतीयता के महत्वपूर्ण आयामों में प्रेम का यही सार्थक अर्थ है। कागज के फूल में फिल्मी जीवन के उतार-चढ़ाव की यथार्थ प्रस्तुति के नीचे एक कथा कोमल नदी की तरह प्रवाहित होती है। संवादों, आलिंगनों, चुम्बनों, सीत्कारों और अधमुंदी आंखों को दिखाए बिना ही प्रेम के गहरे एहसास कैमरे की आंख से दिख जाते हैं. यहां गहरे लगाव का अर्थ एक दूसरे को मुक्त करने में है. जहां अपनी शर्तों को लागू करने का आग्रह नहीं किंतु दूसरे की भावना का आदर उपस्थित है।

फ़िल्म का संगीत भी फिल्म को विस्तार देता है। संगीत निर्देशक तो एचडी बर्मन साहब ही हैं लेकिन इस फिल्म के गीत लिखे हैं कैफी आजमी ने। कैफ़ी आज़मी की शायरी के बेहतरीन रंग इस फिल्म में देखे जा सकते हैं। ”वक्त ने किया क्या हंसी सितम’‘ गाना एक सदाबहार हिट बन गया और अब तक के सबसे पसंदीदा हिंदी फिल्मी गानों में से एक है।

गीत की रचना और बोल के अलावा इसे अब तक के सर्वश्रेष्ठ छायाचित्र गीतों में से एक माना जाता है। फिल्म में गाम्भीर्य को संतुलित करने के लिए हास्य का तड़का तो हर महान कहे जाने वाला निर्देशक भी लगाता है। कागज के फूल में रॉकी के रूप में जाॅनी वाकर की उपस्थिति फिल्म की कथा को प्रवाह तो देती है. लेकिन जॉनी वाकर का क्लब में गाना यह बेहद गैर जरूरी था।

जरूरी तो वह गाना भी नहीं है जो बच्चों को पढ़ाते हुए नायिका गाती है एक दो तीन चार और पांच। कैफ़ी साहब का लिखा गीत ”देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी बारीमोहम्मद रफी की आवाज में कालजयी बन गया है। कैफ़ी साहब ने इस गीत में दिल दहला देने वाले शब्दों का इस्तेमाल किया है, जो किसी भी चीज को पिघला सकते हैं। कागज के फूल कैफ़ी आज़मी को फिल्म गीतकार के रूप में पेश करने के लिए बड़ा ब्रेक थी। कैफ़ी साहब ने इस फिल्म के गीत ही नहीं लिखे फिल्म का पूरा मूड लिखा है।

वीके मूर्ति की सिनेमैटोग्राफी ने प्यासा में तो मानक रचे ही थे. साथ ही कागज के फूल में भी उन्होंने कमाल किया। पहले ही दृश्य में स्टूडियो में जब नायक प्रवेश कर रहा होता है तो स्टूडियो के ऊपर बना बड़ा सा बाज जिससे कैमरा घूमता हुआ नायक पर फोकस होता है तब नायक उस बाज़ के सामने बहुत बौना दिखाई पड़ता है. यही फिल्म की वास्तविकता है। फिल्म के लिए रजतपट शब्द का इस्तेमाल होता है वो वीके मूर्ति की छाया और प्रकाश की अद्भुत क्रीड़ा का कैनवास बन जाता है।

श्वेत-श्याम के माध्यम से सौंदर्य को रचने के लिए खास नज़र की जरूरत होती है। कागज के फूल की फोटोग्राफी और निर्देशक की सौंदर्य सृष्टि के मेल ने इस फिल्म को बहुत ऊंचा मुकाम कराया है। स्टूडियो के अंधेरे में खुले दरवाजों से आती हुई रोशनी में कलाकार के अलावा उसकी परछाई भी दृश्य को अनोखा बनाते हैं। प्राकृतिक प्रकाश के प्रयोग से रोशनी के विभिन्न कोण निर्मित करा कर दृश्य को अनोखापन देना गुरु दत्त का एक शैलीकार होना भी बताता है।

हिंदी सिनेमा के कुछ अविस्मरणीय दृश्य इस फिल्म में देखे जा सकते हैं। पात्रों के अनकहे को मूर्त करना ही दृश्य कला है। गुरुदत्त की कल्पना को उनके प्रिय फोटोग्राफर वी के मूर्ति पूरी कुशलता से पूरा करते हैं। फिल्म के हर फ्रेम में सिने कला की पूर्णता को पाने का प्रयास किया गया है।

इन सारी विशेषताओं, पूर्णताओं और मानकों को रचने के बावजूद कागज के फूल असफल साबित हुई। कागज के फूल की व्यावसायिक विफलता एक ऐसी फिल्म जिसके लिए गुरुदत्त ने अपना सब कुछ झोंक दिया था। यह एक निर्माता और निर्देशक के रूप में उन पर गहरा झटका था। इसके बाद उन्होंने एक भी फिल्म का निर्देशन नहीं किया।

गुरुदत्त ने बहुत शराब पीना शुरू कर दी थी। गुरुदत्त और गीता अब अलग अलग भी हो गए। इस फिल्म के पाँच साल बाद 1964 में शराब और नींद की गोलियों के ओवरडोज से गुरुदत्त की मृत्यु हो गई। इस फिल्म को समीक्षकों ने इतने खराब रिव्यूज दिए हैं कि गुरुदत्त भीतर तक टूट गए थे। हालांकि गुरुदत्त ने भारतीय सिनेमा में वक्त से आगे का सिनेमा रच रहे थे.

सिनेमा के विद्यार्थी इन फिल्मों को क्राफ्ट की गहराई समझने के लिए देखते हैं। कागज के फूल 25 सितंबर 1959 को दिल्ली के रीगल सिनेमा हॉल में इस फिल्म की स्क्रीनिंग की गई. मेहमान थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन.

गुरुदत्त और कागज के फूल की क्रिटिकल फेल्योर से प्रेरित होकर आर बाल्की ने ‘चुप’ रिवेंज ऑफ द आर्टिस्ट फिल्म बनाई है जो एक मर्डर मिस्ट्री और थ्रिलर है। इस फिल्म को आर बाल्की का गुरुदत्त को ट्रिब्यूट भी माना जा सकता है। कागज के फूल के फुटेज और संगीत का भी इस्तेमाल भी इस फ़िल्म में किया गया है।

कागज के फूल की खराब समीक्षाओं और इसका प्रभाव गुरुदत्त के जीवन पर जो पड़ा. वहीं चुप फ़िल्म का आधार भी है कि कच्चे और नए समीक्षकों को उसकी समीक्षाओं से फिल्म को जो रेटिंग दी जाती है. उसका प्रभाव समाज और सिनेमा पर किस कदर गहरा पड़ता है। सिनेमा को बचाने के लिए हत्यारा हत्याएं कर रहा हैं। गुरु दत्त की फिल्में और उनकी रचना प्रक्रिया भारतीय सिनेमा की धरोहर है हमें इस पर गर्व होना चाहिए।

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