कमाल अमरोही की एक कमाल फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ फ़िल्म क्रिटिक डॉ राजेश शर्मा की कलम से

पाक़ीज़ा फिल्म जिन भी मायने और माहौल में बननी शुरू हुई वह अलग बात है, लेकिन पाक़ीज़ा अपने कई चरणों को पार करती हुई भारतीय सिनेमा की एक क्लासिक फिल्म बन चुकी है। 14 साल के लंबे अरसे में बनी इस फिल्म में कई उतार-चढ़ाव रहे। 1952 में कमाल अमरोही की पहली मुलाकात मीना कुमारी से अशोक कुमार ने फिल्म तमाशा की शूटिंग के वक्त कराई थी। 14 फरवरी 1952 को कमाल अमरोही ने मीना कुमारी से शादी की। इस शादी के वक्त कमाल अमरोही के दोस्त बाकर अली और मीना कुमारी की बहन मधु ही इस शादी में शामिल हुए। यह शादी बहुत गोपनीय तरीके से हुई.

बेहतरीन अदाकारा मीना कुमारी के जन्मदिन पर उनकी याद में उनकी आखिरी फ़िल्म पाकीज़ा जो उनके दिल और उनकी ज़िंदगी के बहुत करीब थी, जिसमे उनका अभिनय भी बेहद खूबसूरत और भावपूर्ण था. प्रस्तुत है फिल्म समीक्षक डा0 राजेश शर्मा का ‘पाकीज़ा’ पर लिखा एक लेख.

पाक़ीज़ा फिल्म जिन भी मायने और माहौल में बननी शुरू हुई वह अलग बात है, लेकिन पाक़ीज़ा अपने कई चरणों को पार करती हुई भारतीय सिनेमा की एक क्लासिक फिल्म बन चुकी है। 14 साल के लंबे अरसे में बनी इस फिल्म में कई उतार-चढ़ाव रहे। 1952 में कमाल अमरोही की पहली मुलाकात मीना कुमारी से अशोक कुमार ने फिल्म तमाशा की शूटिंग के वक्त कराई थी। 14 फरवरी 1952 को कमाल अमरोही ने मीना कुमारी से शादी की। इस शादी के वक्त कमाल अमरोही के दोस्त बाकर अली और मीना कुमारी की बहन मधु ही इस शादी में शामिल हुए। यह शादी बहुत गोपनीय तरीके से हुई.

पाकीज़ा : मौसिकी और हुनर से मुकम्मल एक तस्वीर

कमाल अमरोही यह मानते थे कि वह मीना कुमारी से बेपनाह मोहब्बत करते हैं और जिस तरह शाहजहां ने मुमताज महल के लिए ताजमहल बनवाया उसी तरह कमाल अमरोही भी मीना कुमारी के लिए एक यादगार फिल्म देना चाहते थे। 16 जुलाई 1956 में कमाल अमरोही ने पाक़ीज़ा की स्क्रिप्ट पूरी की और उसी दिन पाक़ीज़ा का महूरत भी हो गया। 1958 में फिल्म पर काम शुरू हुआ लेकिन फिल्म में अड़चने लगातार आने लगी। जब फिल्म शुरू हुई तब वह ब्लैक एंड वाइट में काफी कुछ शूट कर ली गई थी। लेकिन उसके बाद रंगीन प्रिंट की शुरुआत हो गई और कमाल अमरोही ने फैसला किया कि फिल्म अब रंगीन में बनाई जाएगी।

कमाल अमरोही साहब ने पाक़ीज़ा फिल्म को उस जमाने की मशहूर तवायफ जद्दनबाई और गौहर जान को ध्यान में रखकर लिखा था। कमाल साहब तवायफों पर एक बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाना चाहते थे।

1964 तक आते-आते आधे से ज्यादा फिल्म बन जाने पर कमाल अमरोही और मीना कुमारी के बीच कुछ अनबन हो गई और फिल्म की शूटिंग बंद हो गई।
FILM PAKEEZAH SCENE

फिल्म रंगीन में शूट होना शुरू हुई और उसी वक्त सिनेमास्कोप लेंस की ईजाद हुई और कमाल अमरोही ने तय किया कि पाकीजा अब सिनेमैस्कोप से ही बनाई जाएगी। विदेश से सिनेमैस्कोप लेंस मंगाया गया और शूटिंग फिर से शुरू हुई। काफी शूटिंग निपट जाने के बाद पता चला कि उस लेंस में कोई तकनीकी खराबी थी। विदेश स्थित उस ऑफिस को लेंस की खराबी की बाबत खबर की गई। कंपनी ने तुरंत इस बात का संज्ञान लिया और लेंस को बदलवाया। इसी के साथ साथ उस कंपनी ने अपनी गलती का खामियाजा भुगतते हुए कमाल अमरोही साहब को सिनेमैस्कोप का महंगा लेंस तोहफे में दिया।

तवायफों पर एक बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाना चाहते थे कमाल साहब

अब फाइनली पाकीजा की शूटिंग शुरू हुई। जब फिल्म में कास्ट किया गया था तब अशोक कुमार को मुख्य अभिनेता के रूप में लिया गया था, लेकिन समय के साथ साथ अशोक कुमार बूढ़े दिखाई देने लगे। तब कमाल अमरोही ने राजकुमार को उनके अनूठे व्यक्तित्व के कारण फिल्म का हीरो बनाया। अशोक कुमार को पहले उन्होंने हकीम जी का रोल दिया लेकिन बाद में वह रोल बदल कर उन्होंने अशोक कुमार जी के लिए एक बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील रोल रखा। कमाल अमरोही साहब ने पाक़ीज़ा फिल्म को उस जमाने की मशहूर तवायफ जद्दनबाई और गौहर जान को ध्यान में रखकर लिखा था। कमाल साहब तवायफों पर एक बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाना चाहते थे।

FILM PAKEEZAH SCENE

1964 तक आते-आते आधे से ज्यादा फिल्म बन जाने पर कमाल अमरोही और मीना कुमारी के बीच कुछ अनबन हो गई और फिल्म की शूटिंग बंद हो गई। कमाल और मीना एक दूसरे से अलग रहने लगे, जबकि बाकायदा उनके बीच तलाक नहीं हुआ था। बाद में खय्याम साहब की पत्नी जगजीत कौर जी ने मीना कुमारी को मनाया और फिल्म को पूरा करने के लिए राजी किया। 24 अगस्त 1968 को कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को एक खत लिखा और फिल्म पूरी होने पूरी करने की बात कही। मीना कुमारी ने फिल्म पूरी करने के एवज में कमाल साहब से तलाक मांगा. कमाल साहब उसके लिए भी राजी हो गए।

24 अगस्त 1968 को कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को एक खत लिखा और फिल्म पूरी होने पूरी करने की बात कही।

मीना कुमारी ने फिल्म पूरी करने के एवज में कमाल साहब से तलाक मांगा. कमाल साहब उसके लिए भी राजी हो गए।

फिल्म की शूटिंग एक बार फिर से शुरू हुई, लेकिन तब तक मीना कुमारी शराब के नशे में पूरी तरह डूब चुकी थीं और उनको लिवर सिरोसिस भी हो गया था। फिल्म में होती देरी को लेकर कमाल अमरोही खुद भी बहुत परेशान थे। बीच में उन्होंने फिल्म का नाम बदलकर लहू पुकारेगा रखा था, लेकिन अंततः फिल्म पाकीजा के नाम से ही रिलीज हुई। दिन था 14 फरवरी 1972 का. मराठा मंदिर में इसका प्रीमियर रखा गया। इस मौके पर मीना कुमारी कमाल अमरोही की बगल में बैठी थीं। जब फिल्म रिलीज हुई तब आलोचकों का रिस्पांस बहुत ही ठंडा था और पाक़ीज़ा को सिनेमाघरों में कोई बढ़त नहीं मिली, लेकिन दो महीने बाद ही जब मीना कुमारी की मौत हुई तब रातों-रात पाक़ीज़ा फिल्म ने शोहरत हासिल कर ली। सिनेमाघरों पर मीना कुमारी के चाहने वालों की भीड़ लग गई।

FILM PAKEEZAH SCENE

पाक़ीज़ा के कला निर्देशन के लिए फिल्म को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। पाक़ीज़ा फिल्म निर्देशन की बारीकियों से बनी हुई फ़िल्म है। फिल्म में कई हिस्से ऐसे हैं जिसमें कमाल अमरोही के कुशल निर्देशन की छाप है। ‘साहब जान’ यानी मीना कुमारी जब रातों-रात लखनऊ पहुंच जाती हैं और गौहर जान की भतीजी के रूप में गुलाबी महल में अपना पहला मुजरा रखती हैं।
पाक़ीज़ा फिल्म में जहां इसका संगीत बहुत दमदार है वहीं फिल्म का निर्देशन जो कमाल अमरोही ने किया है, वह कमाल का है.

एक सीन है जब मीना कुमारी गुलाब महल में पहली बार अपना मुजरा देने जा रही हैं और शहर भर के रईस वहां महफिल में उनका इंतजार कर रहे हैं. मीना कुमारी बहुत ही बेलौस अंदाज में अपनी चोटी खिलाते हुए मस्त कदमों से महफिल की तरफ बढ़ रही हैं और झुकी हुई निगाह से जब वह बैठती हैं और अपनी निगाह उठाती हैं एक सिरे से महफिल को देखना शुरु करती हैं । मेहमानों को देखना शुरू करती हैं.

आप पूरी महफिल पर एक नजर डाल कर जब वह आखरी मेहमान की तरफ देखती हैं और उनकी आंख उस खास रईस से मिलती है, जिसको एक खास जगह महफिल में दी गई है, तो वह अपनी निगाह शर्म से झुका लेती हैं. फिर वह रुमाल उठाती हैं और हल्का सा खांस के साजिंदे को इशारा करती हैं कि उन्हें क्या गाना है। साजिंदे उन्हीं की इशारे पर संगीत की तान लगाते हैं और गाना शुरू होता है। ठाड़े रहियो ओ बांके यार

MEENA KUMARI MUJRA SCENE IN ‘PAKEEZAH’

इसी महफ़िल में एक ठेकेदार किस्म का इंसान जिसके पास पैसा तो है, लेकिन रईसी नहीं है वह भी बैठा है और साहिबजान की एक अदा पर वह सिक्कों की थैली फेंकता है। उसकी फेंकी सिक्कों की थैली उस खास रहीस की थैली से जा टकराती है और अगली कोशिश में सिक्कों की थैली उस ठेकेदार के हाथ में होती है और रईस की गोली चल जाती है। ठेकेदार भी बगैर कुछ कहे महफिल छोड़कर चला जाता है। साहिब जान थोड़ा घबरा तो जाती हैं लेकिन नादिरा के इशारे पर वह फिर से महफिल की रंगत को बरकरार रखती हैं । बात आई गई हो जाती है। इस अदावत की नज़र उतारने के लिए वो रहीस सुबह एक बहुत आलीशान कालीन कोठे पर भेज देता है।

इसी किस्म का दूसरा सीन है जब साहिब जान राजकुमार से मिल लेती हैं और उन्हें लगभग इश्क हो ही जाता है। वह जंगल में अनजान बनकर राजकुमार के खेमे में रहती हैं, लेकिन नादिरा द्वारा ढूंढ ली जाती हैं। फिर से गुलाबीमहल जाती हैं और एक बार फिर से महफिल सजती है। सभी मेहमान बैठे हैं। साहिबजान फटी-फटी आंखों से पूरी महफिल को देख रही हैं। माथे पर पसीना छलका हुआ है। कानों में दुनिया भर की आवाजें गूंज रही है।

उस्ताद सजिन्दा संगीत की एक तान उठाते हैं, लेकिन साहिब जान उसे नहीं सुन पा रही है। एक-एक करके कई ताने उस्ताद सजिन्दा उठा कर बजाते हैं, लेकिन साहिबजान को कुछ नहीं सूझ रहा।वो इश्क़ में हैं। होंठ, बदन थरथरा रहा है. इधर नादिरा की माथे की भौहें और तीखी होने लगती हैं और साजिंदा अपनी खंखार के इशारे में नादिरा को समझा देता है कि अब साहिबजान गा नहीं पायेंगी। अब नादिरा अपने पंखे को बहुत तेजी से चलाना शुरू कर देती है। बेहद गुस्से में हैं। वह महफ़िल से माफी मांगते हुए उस्ताद साजिंदे से कहती है कि मैं न कहती थी कि महफिल मत रखिए अभी तक बुखार उतरा नहीं है और महफिल बर्खास्त कर दी जाती है।

एक ही स्थान पर दो बार महफिल सजाई जाती है, लेकिन इन दोनों महफिलों की रंगत बिल्कुल अलग अलग है। एक महफिल जब साहिब जान मोहब्बत में नहीं है और दूसरी महफिल जब साहिब जान मोहब्बत में हैं। इन दोनों महफिलों ने जो निर्देशन हुआ है वह इन महफिलों की रंगत को बयान करता है। इसी तरह चलते चलते गीत को फिल्म आते वक्त जहां केवल साहिबजान और नवाब साहब हैं। उस महफिल को बहुत सारी शमाओं, फव्वारे और संगीत से सजाया गया है। मीना कुमारी की भाव प्रधान अदाएं इस गीत की जान है। पूरे परदे पर मीना कुमारी की आंखें “यह चराग जल रहे हैं “ दिखाई गई हैं और “यह चिराग बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते जलते” इसमें जहां मीना कुमारी की आंखें जगमगाती हुई मुंदने लगती हैं और शमा भी अपना दम तोड़ कर धुआ फेंकने लगती है।

Sahebjaan absorbed in the note left by Salim

गीत को फिल्माने का ढंग उसे अमर बना देता है। पाक़ीज़ा फिल्म के संगीत को बहुत शोहरत मिली। संगीतकार गुलाम मोहम्मद के संगीत को बहुत बड़ा हिट मिला लेकिन पाक़ीज़ा की अपार सफलता गुलाम मोहम्मद अपने जीते जी ना देख सके क्योंकि 18 मार्च 1968 को वह दुनिया छोड़ चुके थे। पाकीजा इसके 4 साल बाद रिलीज हुई थी। पाकीजा के संगीत के समय उनकी माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी और वह हृदय रोग से ग्रस्त थे, लेकिन अपने हृदय रोग का इलाज क्या करवाना उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह अपनी ईद भी मना सकें। पाकीजा के संगीत की सफलता ने गुलाम मोहम्मद का नाम सबकी जुबान पर ला दिया था। पाक़ीज़ा की विशेषता और लोकप्रियता का दोहरा मुकाम गुलाम मोहम्मद ने पा लिया था।

फिल्मों में मुजरे को इतनी पाकीज़गी और दिलकश अंदाज में कभी भी इससे पहले पेश नहीं किया गया था। राग यमन पर आधारित “इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा” में लता जी की खनक और कहरवा चार मात्रा में तबले की संगत अपने पुरजोर अंदाज में है। “ठाड़े रहियो ओ बांके यार” में मांड की अपनी परिचित राजस्थानी शैली किया गया है। यमन कल्याण और भोपाली को मिलाते हुए “चलते चलते यूंही कोई मिल गया था” में पार्श्व संगीत और आवाज की अप्रतिम जादूगरी देखी जा सकती है। “आज हम अपनी निगाहों का असर देखेंगे” में गुलाम मोहम्मद ने लता की आवाज को एक नया ही आयाम दिया है। थीम संगीत के लिए गायक भूपेंद्र ने बारह तंतु वाले गिटार को सरोद की तरह बजाया था।

मीना कुमारी ने पाकीज़ा में “चलते चलते” से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया

संगीतकार गुलाम मोहम्म्द बीमार हो गए तो नौशाद साहब ने संगीत दिया

यह भी एक रोचक तथ्य है पाक़ीज़ा में जब ड्यूट सॉन्ग रिकॉर्ड होने थे तब गुलाम मोहम्मद बीमार थे। इसीलिए नौशाद साहब ने उन गानों को रिकॉर्ड किया गीत चलते-चलते में नौशाद जी का अपना पूर्ण प्रभाव है. पाक़ीज़ा के लिए गुलाम मोहम्मद ने बहुत सारे गीतों को रिकॉर्ड किया था। बहुत सारी कंपोजिशंस दी थी। कुछ गीत फिल्म में शामिल किए गए कुछ गानों को बैकग्राउंड में रखा गया। उनको मुख्य गाना नहीं बनाया गया तो कुछ गाने बाद में एचएमवी ने पाकीजा रंग बिरंग के नाम से एक अलग रिकॉर्ड में रिलीज किया, जिसमें लता मंगेशकर जी की आवाज में ”पीके चले हम हैं शराबी पीके चले यह चले यह चले हम हैं शराबी निगोड़े यार के।” जिसमें लता जी की आवाज की कोमलता और तबले की धमक के बीच गुलाम मोहम्मद ने जो हारमनी पैदा कर दी है वह अप्रतिम है। ”यह किसकी आंखों का नूर हो तुम यह किसके दिल का करार हो” मोहम्मद रफी की आवाज में पारंपरिक मुशायरे की शैली में धुन है। ”प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई” और ”कोठे से लंबा हमारा बन्ना” लता जी और शमशाद जी का गाया हुआ पारंपरिक विवाह गीतों की धुनें है।

फ़िल्म का एक सीन है जब राजकुमार मीना को लेकर तांगे पर जा रहे हैं और एक रईस जो साहिबजान के मुजरे में शामिल हो चुका है वो मीना को पहचान लेता है। वो घोड़े पर तांगे के पीछे चलने लगता है। वहाँ फिर झगड़ा हो जाता है। इस सीन में रईस से जब उसका परिचय मांगा जाता है तो वो रईस बाज़ार में खड़े तमाम लोगों में से एक को बुलाता है और उसे अपना परिचय देने को कहता है। क्या ठाठ, क्या अदायगी। जब राजकुमार मीना से उस रईस के बारे में पूछते हैं तो वो कहती हैं किस किस का नाम पूछेंगे आप।एक सीन में जब राजकुमार मीना से निकाह पढ़ने को ले जाते है तो एक मस्ज़िद की लंबी सीढ़ियां हैं। जब मौलाना के मीना का नाम पूछने पर राजकुमार उसे पाकीज़ा नाम देते हैं तो मीना की विस्फरित आँखे सब कुछ कह देती हैं। जब मौलवी मीना से निकाह की हां कराता है, तो मीना ”नहीं” की तान लगाती हुई मस्ज़िद की सीढ़ियों से उतर जाती हैं। मीना का काला दुशाला उड़ जाता है।

मीना जब उठती हैं तो अपने पैरों की अंगुलियों के बीच एक कागज की पर्ची देखती हैं। खोल कर पढ़ती है तो उसमें एक संदेश होता है। “आपके पावँ देखे, बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर मत उतरियेगा वरना मैले हो जाएंगे।”

फिल्म की जान है रेलगाड़ी वाला सीन

इस एक दूसरे सीन का जिक्र किये बगैर तो पाकीज़ा अधूरी हैं। जब मीना रेलगाड़ी में सफ़र कर रही होती हैं। बरसती रात में सुनसान प्लेटफार्म। गाड़ी लगभग चलने को है। राजकुमार ट्रेन पकड़ने आ रहे हैं वो चलती ट्रेन के उस डिब्बे में चढ़ जाते हैं जिसमे मीना सो रही हैं। राजकुमार बैठ जाते हैं मीना करवट बदलती हैं। उनके चेहरे पर दुपट्टा पड़ा है। करवट बदलने से मीना का पावँ राजकुमार से छूता है। अब ट्रेन की लय के साथ हिलता खूबसूरत पावँ, पैर में पड़ी पायल और संगीत। पर्दे पर क्या रोमांटिक वातावरण बनाता है।

राजकुमार चूंकि एक शरीफ़ खानदानी आदमी हैं, सो वो किसी पराई औरत का चेहरा भी नहीं देखते। सुबह मीना जब उठती हैं तो अपने पैरों की अंगुलियों के बीच एक कागज की पर्ची देखती हैं। खोल कर पढ़ती है तो उसमें एक संदेश होता है। आपके पावँ देखे, बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर मत उतरियेगा वरना मैले हो जाएंगे। जो पैर दुनिया के सामने नाचने को हैं उन पैरों को ये संदेश मिलता है। इस संदेश से तो मीना का जीवन ही बेचैन हो उठता है। वो ट्रेन के सफ़र की रात उसके ज़ेहन में बैठ जाती है। रोज़ मुजरे के बाद जब किसी रेलगाड़ी की दूर से आती सीटी की आवाज़ उसे वहाँ खींच के ले जाती। एक दिन ट्रेन रुक कर सीटी देती है। इसी बात को मीना अपनी दोस्त से कहती हैं कि रोज़ाना एक रेलगाड़ी आती है और मेरे सीने पे से होती हुई चली जाती है।

अलग अलग कोठों के अलग अलग रंग

इस फ़िल्म का एक-एक सीन तराश के तैयार किया हुआ है। कोठों के जो सेट लगाये हैं उनमें हर कोठे पर कुछ न कुछ अलग अलग हाव् भाव दिखते हैं। हकीम साहब की हवेली के दृश्य भी पूरे माहौल को कैमरे के एंगेल से शानदार तरीके से दिखाते हैं। चाहे वो रात में मसहरियो को लगा कर सोने के दृश्य हों, या हकीम साहब की नाराज़गी के दृश्य। फ़िल्म में कई गीत है। मुजरे भी हैं, लेकिन तीन गानों में जहाँ मीना कुमारी दिखायी गयी है वहाँ दरअसल मीना कुमारी नहीं हैं। फ़िल्म के शुरू में जो संगीत हैं जिसमें नरगिस को नाचते हुए दिखाया है, दूसरा नदी में गाना है ”चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो” और तीसरा मुजरा जो हकीम साहब की हवेली पर होता है ”आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे तीरे नज़र देखेंगे” में। इन सबमें मीना कुमारी की जगह पद्मा खन्ना को लिया गया है। पाकीज़ा एक ऐसा शाहकार है जो सदियों में एक बार बनता है, जिसकी हर चीज़ कमाल की होती है। इसीलिए इसे क्लासिक का दर्ज़ा मिला हुआ है।

डा0 राजेश शर्मा
फिल्म समीक्षक

ias Coaching , UPSC Coaching