मशहूर शायर प्रो. वसीम बरेलवी की ज़िन्दगी की कुछ अनकही बातें डॉ राजेश शर्मा के साथ

अंतर्राष्ट्रीय शायर वसीम बरेलवी जिनका असली नाम जाहिद हसन है, ने पूरी दुनिया में बरेली का नाम शायरी के माध्यम से रौशन किया और पूरी दुनिया के लोगों के वह आज महबूब शायर हैं।

बरेली में उनके लिए हुए जश्न “जश्ने वसीम” की सफलता की गूंज ने पूरे हिंदुस्तान में शायरी की दुनिया में हलचल मचा दी थी। मिलट्री लगी थी उस कार्यक्रम की भीड़ को संचालित करने के लिये।

वसीम बरेलवी के पहले उस्ताद उनके वालिद साहब थे फिर बाकायदा सैंथल के मुंतकिम हैदरी साहब उनके उस्ताद रहे।

संभल,दिल्ली यूनिवर्सिटी के बाद बरेली कॉलेज में ऊर्दू के लेचररर रहे फिर हेड ऑफ डिपार्टमेंट भी रहे। वसीम साहब रूहेलखंड यूनिवर्सिटी के डीन ऑफ आर्ट फैकेल्टी भी 1998 से 2000 तक रहे हैं

वसीम बरेलवी भारत सरकार के नेशनल कॉउंसिल ऑफ उर्दू लेंग्वेज़ प्रमोशन के वाईस चेयरमैन रहे और फिर समाजवादी पार्टी ने उनकी योग्यता और समर्पण को देखते हुए उन्हें एमएलसी भी बनाया।

वसीम बरेलवी को पूरी दुनिया से न जाने कितने सम्मान और पुरुस्कार मिलें हैं जिनकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। उत्तर प्रदेश का ‘यश भारती’ सम्मान भी उन्हें मिला है।

मुरादाबाद के एक बड़े जमींदार जिनकी जमींदारी में लगभग 384 गांव थे, अपनी इतनी बड़ी जमीदारी को संभालते हुए अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भी संभाल रहे थे। जमींदार मज़हूर हसन साहब का इतना रूआब और असर था कि 1920 में मुरादाबाद से काशीपुर तक चलने वाली ट्रेन इन्हीं की जिम्मेदारी पर चलती थी। मज़हूर हसन का निकाह बतूल निसा बेग़म से हुआ था। इन दंपत्ति की चार औलादें हुईं। सबसे पहले जामिन साहब, दूसरे शाहिद हसन साहब उर्फ नसीम मुरादाबादी तीसरे अक्का साहब और चौथी बेटी मुन्नी बेगम।

दिन बहुत अच्छे और आराम के कट रहे थे। मुन्नी बेगम का निकाह मुरादाबाद के ही एक पीतल व्यवसाई के खानदान में हो गया। ज़ामिन साहब बहुत पहले की कम उम्र में अल्लाह को प्यारे हो गए थे। बड़े जमींदार का बेटा, आराम की दुनिया ,ज़माने से नादान,अल्हड़ उम्र। किसी की नजर इन शाहिद साहब पर पड़ी। उसे इनमें अपना मुनाफा नजर आया। शाहिद को उसने अपनी बातों और तबीयत की गिरफ्त में आहिस्ता-आहिस्ता ले लिया और धोखे से शाहिद हसन को मकसूद हुसैन साहब से मिली एक बहुत बड़ी ज़ायदाद का पूरा हिस्सा ही अपने नाम लिखवा लिया। जबकि शाहिद हसन उस समय नाबालिग थे. उनको कागजों में बालिग बनाकर यह काम करवाया गया। यानी कि यह सब एक सोची समझी साजिश का हिस्सा था।

अल्हड़ता और नादानी के सीधे-साधे रंग में डूबे शाहिद को यह एहसास ही ना हो पाया कि उनसे क्या हो गया, उन्होंने क्या गवाँ दिया। शाहिद हसन तो जैसे जमीन पर आ लगे। उनकी मां बतूल निसा बेगम के चार भाई थे और उन सब भाइयों की चार-चार, छह- छह गांवों की जमींदारी तब थी। शाहिद हसन का सब कुछ जाने के बावजूद भी अब एक हुनर जो उनके अंदर पैदा हुआ वो शायरी का था। टूटा दिल, साथ हुआ धोखा, जिस पर भरोसा किया उसकी बेवफाई इन हालातों ने शाहिद हसन को शायर बना दिया।

ये अब शाहिद हसन नसीम मुरादाबादी के नाम से अपने कलाम पढ़ने लगे। अच्छे कलाम कह रहे थे। मुरादाबाद में शायर के तौर पर बड़ी पूछ थी। वैसे तो सब लाव लश्कर और जायदाद खत्म हो गई थी, लेकिन जो खानदानी मकान नवाबपुरा मोहल्ले में एक हवेली जैसा था वह अब भी उनकी मिल्कियत में था। वैसे तो नवाबपुरा का पूरा मोहल्ला ही इनके खानदान के नाम पर था। पूरे मोहल्ले के मकान इन्होंने किरायेदारों को दे रखे थे। पीले फाटक वाला हवेलीनुमा मकान शाहिद हसन खान के पास था। खानदानी तबीयत के चलते हुए हादसे को बढ़ा होते हुए भी मामूली समझ लिया गया, क्योंकि यह खानदान सूफी, रूहानी और पढ़े लिखे लोगों का खानदान था और इनमें जज़्ब करने का एक रिवायती सलीका मौजूद था। एक ज़माने में जब प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आये थे, तब हर रियासत से एक-एक शख्स को दिल्ली दावत में बुलाया गया था. बस एक यह ही खानदान ऐसा था जिसके तीन लोगों को दिल्ली से दावत नामा आया था।

शाहिद हसन साहब का निकाह बरेली की रफिया बेग़म से हुआ था। रफिया बेग़म के पिता शेख इन्तज़ाम उल्ला साहब भी जमींदार थे। नवाबगंज तहसील की रिछोला, गरिम, हाफिजगंज औरंगाबाद में इनकी जमींदारी थी। शेख इंतजाम उल्लाह साहब अपने भाई इनामुल्लाह के साथ बरेली के फूटा दरवाजा के अंदर आमने-सामने के मकानों में अपने अपने परिवारों के साथ रहते थे।शेख इंतजाम उल्लाह की बेगम रुक्कैया बेगम थीं। इनके दो बेटे और दो बेटियां थी। बड़ा बेटा एहतेशाम उल्लाह और छोटे इलहाम उल्ला और बेटी जकिया बेगम और रफिया बेग़म। एहतेशाम उल्लाह और इलहाम उल्लाह अपने वालिद के सामने ही इंतकाल फरमा गए थे। जकिया बेग़म दिल्ली में अपने पति के साथ रहती थीं. वो वह दिल्ली के सेक्रेट्रियट में थे। जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ तो वह अपने पति के साथ पाकिस्तान चली गयीं। रफिया बेगम का निकाह मुरादाबाद के शाहिद हसन से ही हो चुका था। शाहिद हसन के हालात नरम होने पर वह अपनी बेगम रफिया बेगम के साथ अपनी ससुराल बरेली आ गए और बतौर खानादामाद फूटा दरवाजा वाले मकान में ही रहने लगे।

ससुराल से उनको बहुत प्यार,एहतराम और इज़्ज़त मिली। यहीं रहकर उन्होंने अपनी तालीम को आगे बढ़ाया और बीए, बीएड किया। इसी बीच शेख इंतजाम उल्ला खान और रुक्कैया बेगम भी इंतकाल फरमा गए। खानदान में और कोई बचा ना था, तो शाहिद हसन का बरेली में ही रहना तय पाया गया और शाहिद हसन अपनी मुरादाबाद वाली हवेली पर अपने किरायेदारों से कुछ कहने भी नहीं गए और वहां की बची जायदादों, जमीदारी और उस हवेली को भी हो हमेशा के लिए भूल गए।

रफिया बेगम बड़ी नेक और अल्लाह को मानने वाली औरत थीं। उन्होंने भी कुछ ना कहा बल्कि वह जीवन भर अपने बच्चों की पढ़ाई में ही लगी रही और अपनी जमीदारी को भी ठीक से ना देख पायीं। इससे घर के हालात खराब हो उठे। माली हालत में भी फर्क आने लगा। शाहिद हसन और रफिया बेगम के तीन बेटे और दो बेटियां हुईं. बड़ा बेटा अली हसन अफरोज, दूसरे जाहिद हसन और तीसरे राशिद हसन, बेटियां अतिया परवीन और छोटी सफिया परवीन हुईं। घर के माली हालात अच्छे ना थे। बरेली में भी साम्प्रदायिक झगड़े हो रहे थे। सो रफिया बेगम अपने बच्चों को लेकर पड़ोस में रामपुर चली गई।

रामपुर नवाब रजा अली खां की स्टेट थी, तो वहां इस तरह के झगड़े नहीं थे। वहीं एक छोटा सा किराए का मकान कुटकुइयाँ मोहल्ले में लेकर रफिया बेगम अपने बच्चों को तालीम देने लगीं। बड़े होकर अली हसन पढ़ लिखकर बरेली की रबड़ फैक्ट्री में ट्रांसपोर्ट ऑफिसर हो गए, राशिद हसन पहले तो रबड़ फैक्ट्री में ही अकाउन्ट सेक्शन में काम करते रहे, फिर आगरा में वकालत करने लगे. अतिया परवीन का निकाह कोहरापीर बरेली में हो गया और सफिया का निकाह आगरा में हो गया।

अब जो बीच वाले साहबजादे जाहिद हसन हैं, जिनका जन्म 1940 में जन्म हुआ. उन्होंने रामपुर के मुर्तज़ा हायर सेकेंडरी स्कूल से छठी और सातवीं क्लास पास की, फिर बरेली आकर बॉयस क्रिश्चियन हायर सेकेंडरी स्कूल से आठवां, नवांऔर दसवां पास किया।तब यह स्कूल बरेली के कुतुब खाने पर हुआ करता था। 1954 में 11वीं और 12वीं क्लास इस्लामिया इंटर कॉलेज से की। 1956 में बरेली कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। जाहिद हुसैन बड़ी कुशाग्र बुद्धि के थे और उनकी अंग्रेजी अच्छी थी। वो जब ग्रेजुएशन में थे तो उनके अंग्रेजी के टीचर प्रो. देवी शरण शर्मा और डॉ आरएन मिश्रा चाहते थे कि जाहिद अपना पोस्टग्रेजुएशन अंग्रेजी में ही करें ।उन्होंने कहा कि ज़ाहिद एमए अंग्रेजी से करना. तमाम नौकरियां तुम्हारी जेब में उम्र भर पड़ी रहेंगी, लेकिन जाहिद हसन को अपने वालिद साहब की रंगत की हवा लग चुकी थी।

चुपके चुपके शेर कहने लगे थे। वसीम बरेलवी तखल्लुस भी रख लिया था। अपने कलाम अपने पिता शाहिद हसन नसीम मुरादाबादी को ही दिखाने लगे थे, तो शायरी से इश्क के चलते जाहिद हसन ने उर्दू एम ए में दाखिला ले लिया। अंग्रेजी वाले प्रोफेसर से कई महीनों तक मुंह चुराते रहे। उन्होंने भी महीनों इनसे नाराजगी के चलते बात नहीं की।अपनी शायरी को दुरुस्त करने के लिए वसीम ने उस्ताद की तलाश की, तो उन्हें मुंतकिम हैदरी साहब मिले। इनको वसीम साहब ने बाकायदा उस्ताद माना और इनसे अपने शेरों और मिज़ाज़ को दुरुस्त करवाया। उस ज़माने में वसीम साहब के मेहबूब शायर मीर तकी मीर और फानी बदायूनीं थे।इनके कलामों ने वसीम साहब को बहुत मुत्तासिर किया।

जब जाहिद हसन ग्रेजुएशन कर रहे थे तो रोजाना फूटा दरवाजा से पैदल ही बरेली कॉलेज जाते और थके हारे पैदल ही घर शाम को लौटते। उन्हें अपने हालातों पर बड़ा गुस्सा आता। कॉलेज में अपने संगी संगी साथियों को साइकिल से आते देखते थे। जवान हो ही रहे थे सो मन में कभी आता भी था। अपनी माली हालत को लेकर एक दिन वह घर में रो पड़े। तब उनकी मां रफिया बेगम ने किसी जमींदारी से आए 20 रुपये उनके हाथ में रखे और कहा कि जाओ अपने लिए साइकिल ले लो। 20 रुपये मानो जमाने भर की दौलत हाथों में आ गई। जाहिद अब साइकिल से चलने लगे। एमए भी हो गया। एमए में फर्स्ट क्लास फर्स्ट ली। उस समय उच्च शिक्षा आगरा विश्वविद्यालय से ही संचालित होती थी। रुहेलखंड यूनिवर्सिटी तब तक नहीं बनी थी। आगरा यूनिवर्सिटी के तहत 80 कॉलेज आते थे. वसीम साहब ने इन 80 कॉलेजों में फर्स्ट क्लास फर्स्ट हासिल की थी।

एक दिन मां ने बड़े बाजार में लेटेस्ट टेलर की दुकान पर भेजा कि जाओ अपनी शर्ट ले आओ। वसीम जब अपनी शर्ट लेने गए तब पैकिंग के लिफाफों का प्रचलन नहीं आया था। टेलर ने शर्ट एक अखबार में लपेट कर दे दी। घर आकर जब शर्ट खुली तो अखबार भी खुला। अचानक से वसीम की नजर अखबार में छपे एक इश्तहार पर पड़ी। हिन्द इंटर कॉलेज संभल में कुछ विषयों के टीचरों के लिए जगह खाली है, उसमें उर्दू विषय भी था। सो अपने पड़ोस की एक खाला जो संभल की थी उनसे उनके घर का पता लेकर संभल चले गए। उस समय वहां सलेक्शन कमेटी में मुंसिफ मजिस्ट्रेट और तहसीलदार वगैरा भी मैनेजिंग कमेटी के साथ इंटरव्यू में बैठते थे। वसीम भी अपनी बारी का इंतजार करने लगे। इनका मासूमियत भरा चेहरा देखकर वहां का चपरासी इदरीस इनके पास आया और पूछा कि किस विषय के लिए आए हो। जवाब मिला उर्दू के लिए।तो इदरीस ने कहा अरे तुम वापस जाओ तुम्हारा कुछ नहीं होगा यहां मैनेजिंग कमेटी के पहले ही से दो पसंदीदा उम्मीदवार बैठे हैं। तुम्हारी दाल नहीं गलेगी, लेकिन वसीम साहब जमे रहे और इंटरव्यू बहुत शानदार तरीके से दिया।

इल्म तो इनको अपने विषय का था ही। फैसले के लिए वसीम बाहर इंतजार कर रहे थे कि चपरासी इदरीस आया और बोला अरे तुम वापस मत जाना वहाँ अंदर बहुत झगड़ा हो रहा है तुम्हें लेकर। बाद में वसीम साहब को अंदर बुलाया गया तो पता चला कि उनकी काबिलियत को देखते हुए उनका चुनाव कर लिया गया है, लेकिन मैनेजिंग कमेटी के चौधरी खुर्शीद अहमद ने फिर एक पासा फेंका और कहा कि आप वायदा करिए कि आप अब कॉलेज छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। तब मुंसिफ मजिस्ट्रेट हुकुम सिंह फूट पड़े बोले जनाब आप क्या कह रहे हैं यह आज आपके पास यहां हैं और इनमें बहुत स्पार्क है, बहुत इल्म है अगर इन्हें कोई और अच्छी जगह मिलेगी तो क्यों नहीं जाएंगे।

बहरहाल पहला अपॉइंटमेंट हो गया। वसीम साहब संभल में ही रहने लगे। पढ़ाने के साथ-साथ नशिस्तें भी करने लगे। आलम यह कि चार छह महीने में ही पूरे संभल में वसीम बरेलवी का नाम लोगों की जुबान पर आ गया। 1959 तक वसीम साहब संभल ही रहे।इस बीच आसपास के इलाकों से मुशायरे के दावतनामें आने लगे। बछरावां में एक मुशायरे में गए तो वहां बहुत दाद मिली। वहां हसनपुर के नवाब खानदान के नईम अहमद खान, लतावत साहब और ख़ालिद ख़ाँ नैय्यर भी आए हुए थे। उन्होंने वसीम साहब की शायरी सुनकर उन्हें हसनपुर चलने की दावत दी। वसीम साहब ने दावतनामे को भविष्य के लिए खिसका दिया। बस पकड़कर गजरौला पहुंचे तो चाय पीने नीचे उतरे।अगली बस देर तलक तक न थी। तब तक नईम अहमद वगैरह भी अपनी गाड़ियों से वहां पहुंच गए। वहाँ वसीम साहब को खड़े देखकर इसरार करने लगे कि अब तो आपको हसनपुर चलना ही पड़ेगा।

हसनपुर का वसीम बरेलवी की जिंदगी में बड़ा अहम मुकाम है। वसीम की शायरी के मयार को नईम साहब ने गहरे तलक समझ लिया था। उन्होंने फरमाया कि अब वसीम को पूरी दुनिया सुनेगी। इसी के साथ वसीम बरेलवी के भी जोश को जगाया। उनके भीतर शायरी के सोये हुए शेर को जगाने में इन लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। वसीम अब अपने पर गौर करने लगे। लोग उनको इतने एहतराम और उम्मीद की निगाह से देख रहे हैं तो उन्होंने भी अपने भीतर झांका। नईम अहमद खान तो डूब कर इनके दीवाने रहे और ताउम्र इनको मशहूर ही करते रहे।

इसी बीच हिंदू कॉलेज दिल्ली के उर्दू लेक्चरर की जगह निकली। वहाँ आवेदन भेजा। ख्वाजा अहमद फारुकी तब वहां हेड ऑफ डिपार्टमेंट थे। प्रिंसिपल राजनारायण माथुर साहब थे। इंटरव्यू शाम चार बजे से शुरू हुआ। वहां के वाइस चांसलर वीकेआर वी राव, हेड फारुकी साहब सहित उर्दू के जाने-माने क्रिटिक राइटर एहतेशाम हुसैन और आली अहमद सुरूर इंटरव्यू में मौजूद थे। वसीम साहब ने सोचा कि मैं छोटे शहर से आया हूं पता नहीं दाल गलेगी कि नहीं। तो झट से दिमाग में आया कि अंग्रेजी का रुतबा उर्दू के इंटरव्यू में झाड़ा जाए तो कुछ काम बन सकता है। इन्हें ये इल्म था कि वाईस चांसलर राव साहब को हिंदी उर्दू का ज्यादा ज्ञान नहीं था और वो सिर्फ अंग्रेजी ही बोल समझ सकते थे। उनको इम्प्रेस करना बहुत जरूरी था और यह तरकीब काम भी आई। अंदर जाने को हुए तो ”मे आई कम इन से” जो बात शुरू की और अंदर से जवाब आया ”कम इन” तो फिर उन्होंने अपनी तरफ से सिलसिला अंग्रेजी में ही शुरु कर दिया। मारे मजबूरी उर्दू के क्रिटिक महोदय और फारुखी साहब को भी अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ी। फिर सब अंग्रेजी में ही बोलने लगे। वसीम साहब की अंग्रेजी अच्छी है, फर्राटे से बोल लेते हैं।

अब आलम यह कि उर्दू का क्रिटिसिज़्म अंग्रेजी ज़ुबान में हो रहा है। राव साहब पर वसीम के इल्म का अच्छा प्रभाव पड़ रहा था।वसीम साहब ने एक पैंतरा और खेला वहां जब उन क्रिटिक महोदय ने उनसे पूछा कि उर्दू क्रिटिसिज़्म में आप किन किन को क्रिटिक मानते हैं तो वसीम साहब ने कई नाम गिनाये उनमें वहां मौजूद दो क्रिटिक इंटरव्यूवरों के नाम भी उन्होंने गिनाए, लेकिन जानबूझकर हेड ऑफ डिपार्टमेंट फारुकी साहब का नाम नहीं लिया। अब यह गौरतलब बात थी तो उन्हीं महोदय ने उनसे पूछा कि आपने फारूकी साहब की मीर पर लिखी किताब नहीं पढ़ी है। आपने इनका नाम क्यों नहीं लिया। तो वसीम साहब ने उनकी किताब के हवाले से जवाब दिया कि उस पूरी तीन सौ अस्सी पन्ने की किताब में सिर्फ अस्सी पन्ने ही मीर पर लिखे हैं बाकी तो रिपीटेशन है और एक मामूली पाठक की हैसियत से उन्होंने फारुकी साहब की किताब की नापसंदगी भी जाहिर कर दी। अब वाईस चांसलर भी खुश और दोनों क्रिटिक भी खुश तो अपॉइंटमेंट तो बनता ही था सो हो गया। अब वसीम साहब दिल्ली की आबोहवा में रंगने लगे।

दिल्ली में थे तो उर्दू बाजार भी जाने लगे। उर्दू बाजार जामा मस्जिद के पास फ्रेंड्स होटल के पास मौलवी समीउल्लाह की दुकान के ऊपर शायरों की महफिल का एक अड्डा था। जहां दिल्ली भर के कलमकार, रिसर्चर, शायर और अदीब इकट्ठे होते थे और अपने कलाम सुनते सुनाते थे। तामीर ए अदब के नाम से यहां महफिल सजा करती थी। इस महफ़िल को जमाया था आनन्द मोहन जुत्शी गुलज़ार देहलवी साहब ने। एक कमरा होटल के ऊपर था, जिसमें करीब पचास आदमी आ जाते थे। हर इतवार को अदबी महफिल वहां सजती थी। दिल्ली पहुंची हुई तमाम बड़ी हस्तियां भी यहां शिरकत करने आया करती थीं। इस महफ़िल में बिस्मिल सईदी, गोपाल मित्तल, मखमूर सईदी, अनवर साबरी, राम किशन मुज़्तर, ओम प्रकाश साहिर होशियारपुरी, अजीज वारसी, कुमार पाशी, प्रेमवार बर्तनी, नरेश कुमार शाद, अमीर देहलवी जैसे दिग्गज शायर तशरीफ़ फरमा होते थे।

Pro. Waseem Barelvi in his drawing room

वसीम साहब का जाना इन महफिलों में शुरू हो गया। इस समय वसीम साहब पुरानी दिल्ली के फतेहपुरी में एक किराए का कमरा लेकर मंजूर साहब के साथ उस कमरे को शेयर कर रहे थे। मंजूर साहब हमदर्द में नौकरी करते थे। तामीर ए अदब में हर महीने के आखिरी इतवार को एक तरही मुशायरा होता था, जिसमें एक मिसरा दे दिया जाता था उसी पर पूरी गज़ल मुकम्मल करनी होती थी। इसी समय वसीम साहब को मुजफ्फरनगर से डीएवी कॉलेज से एक मुशायरे का दावतनामा मिला था। वसीम साहब गए भी लेकिन जब मुशायरे का आगाज हुआ और घटिया शेरों पर वहां के सुनने वाले लोटमपोट होने लगे, तो वसीम साहब का मिजाज उखड़ गया उन्हें लगा कि यहां मेरी शायरी कौन सुनेगा। सो चुपके से अपना सामान उठा निकले और ऑर्गनाइजर के रोकने पर भी ना रुके। अब स्टेशन पर ही चाय की चुस्कीयों में रात काट दी। रात बुरी बीती। एक तो मुशायरा ना पढ़ने का मलाल फिर सफर की जद्दोजहद, पैसे का नुकसान भी। एक अजीब सी बेचैनी, कैफियत खीज़ और बेबसी का आलम कि सुबह जब दिल्ली पहुंचे तो कमरे पर पहुँच कर दो बज गये। जब उठे तो अखबार आया हुआ था अंजमियत। उसमें तरही मुशायरे की वह लाइन छपी मिल गई जिस पर ग़ज़ल तामीर करनी थी। वो लाइन कुछ यूं थी।
“मंजिल उन्हें मिली जो शरीके सफ़र न थे
दिल जलाए तो बैठे ही थे तो चुटकियों में ही उस लाइन पर पूरी ग़ज़ल तामीर हो गई। वसीम साहब ने मंजूर साहब से कहा उठो चलो मुशायरे में। तो मंजूर साहब बोले होश में तो आ जाओ। ग़ज़ल तो लिख लो। वसीम साहब ने कहा कि वह तो हो गई। अरे हो गई, कब हो गई, अभी तो आकर बैठे हो सफर से। वसीम साहब बोले हो गई। मंजूर साहब को कुछ इत्मीनान ना हुआ तो बोले मुझे गज़ल सुनाओ। तब वसीम साहब ने पुर्जी। ग़ज़ल कुछ यूं थी।

राहे वफा के फासले कुछ मोतबर न थे
अच्छा हुआ के आप मेरे हमसफ़र न थे
साजिश मेरे खिलाफ हुई है कोई 'वसीम'
साकी की उंगलियों के निशां जाम पर न थे

मंजूर साहब ने जल्दी-जल्दी अपनी शेरवानी पहनी बोले चलो चलो देर ना हो जाए और इस ग़ज़ल ने उस दिन उस महफिल में आग लगा दी। वसीम साहब की इस दिलजली गजल ने पूरी महफिल लूट ली। एक बहुत उस्ताद शायर अनवर साबरी को भी वहां पढ़ना था। वह फ्रीडम फाइटर भी रहे और जवाहरलाल नेहरू के करीबी भी थे। उन्होंने उस महफिल में अपनी ग़ज़ल वाला कागज उठाया और बीच में से चीर दिया बोले कि वसीम की ग़ज़ल के बाद अब कोई ग़ज़ल यह सुनाने को बचती नहीं है।
उसके बाद हमदर्द के अजीज वारसी जो गुलजार साहब की महफिल में हमेशा मौजूद होते थे, ने एक मुशायरा सजाया। जोश मलिहाबादी पाकिस्तान चले गए थे विभाजन के वक़्त, तो वो अब लौट कर हिंदुस्तान आये थे। इस मौके को अजीज़ वारसी ने हाथ से न जाने दिया। इस मुशायरे में हिंदुस्तान के और भी बड़े शायर शिरकत फरमा रहे थे।

जब वसीम साहब ने अपनी ग़ज़ल का मतला पेश किया तो जोश साहब ने एक जुमला वसीम साहब की तरफ उछाला कि वसीम मियाँ मुशायरों इतना बारीक नहीं काटा जाता। ऐसे ही एक मुशायरा दिल्ली क्लॉथ मिल डीसीएम की तरफ से भी आजादी के बाद हुआ था। दिल्ली क्लॉथ मिल आजादी से पहले केवल दो जगह मुशायरे कराता था। एक लायलपुर जो अब पाकिस्तान में है और दूसरा दिल्ली में। लाल किले के मुशायरे से बड़ा मुशायरा इस मुशायरे को माना जाता था। उसमें भी पाकिस्तान के सब बड़े बड़े शायरों को दावतनामा भेजा गया था इंडो-पाक मुशायरे की नीवं डीसीएम ने ही डाली थी। शंकर और शाद साहब ने डीसीएम मुशायरों की नींव डाली. बाद में इन्ही की याद में ये मुशायरे होते रहे। इनके वारिसों की तीसरी नस्ल आज भी इन मुशायरों को करा रही है। अब माधव जी इन प्रोग्राम्स को देखते हैं।

Pro. Waseem Barelvi with writer Dr. Rajesh Sharma

बीच मे डीसीएम के मुशायरे कुछ समय के लिए किन्ही हालातों में मुल्तवी कर दिए गए, तो बिहार की रहने वाली एक उर्दू की बड़ी परस्तार जो दिल्ली में थीं कामना प्रसाद इनके पति इंडियन फॉरेस्ट सर्विसेज में थे। उन्होंने मशहूर लेखक खुशवंत सिंह और मशहूर आर्टिस्ट एमएफ हुसैन के साथ मिल कर जश्ने बहार का मंच तैयार किया और बड़े मयार के मुशायरे करवाये. इन मुशायरों में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सभी मशहूर शायर शिरकत किया करते थे।

वसीम साहब की जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट तब आया जब उन्हें 1961 में अलीगढ़ यूनियन से मुशायरे का दावतनामा आया. इस मुशायरे में शरीक होने वो अलीगढ़ जा रहे थे. रास्ते में बुलंदशहर में रुक कर चाय पीने लगे. वहां रफत सरोश जो ऑल इंडिया रेडियो में उर्दू मजलिस के अरेंजर थे, वह मिल गए। हालचाल हुए उनको पता लगा कि वसीम साहब अलीगढ़ पढ़ने जा रहे हैं तो उन्होंने वसीम साहब को होशियार किया। कहा देख लो वहां जा रहे हो उसे हूटिंग फेस्टिवल कहते हैं। वहां कोई टिक नहीं पाता है वहां के सुनने वाले बहुत ज़हीन और बारीक हैं। बड़े-बड़े शायरों की दाल वहाँ नहीं गलती। वसीम साहब पशोपेश में लेकिन उन्हें ना हारने की दीद अपनी मां से मिली थी जो किसी भी हालात में घबराती नहीं थीं।

चुनाँचे पहुंच गए मुशायरे में। मुशायरे का आगाज हुआ शायर आने लगे और जाने लगे। एक दो शेर पढ़ना लोगों के लिए मुश्किल हो गया। सलाम मछली शहरी और दिलावर फ़िगार को ही लोगों ने सुना। जबकि इस मुशायरे में रवीश सिद्दीकी, कलीम आज़िज़, शमीम करहानी, नशूर वहीदी, नाज़िश प्रतापगढ़ी जैसे दिग्गज शायरों का जमावड़ा था। संचालन कर रहे थे बसीर खान। वसीम साहब को उन्होंने कहा कि पढ़ेंगे तो वसीम साहब ने कहा ”अरे रहने दीजिए”। वसीम साहब अब शायरों की हालत देखकर पस्त भी हो रहे थे और ना पढ़ने की वजह से लस्त हो रहे थे। अब मन ही मन तय कर लिया कि पढ़ लूंगा ज्यादा से ज्यादा हूटिंग ही तो हो जाएगी। जब इतने बड़े बड़े शायरों का ये हाल हो रहा है तो हम कौन सी बड़ी तोप हैं। लेकिन मानना तो पड़ेगा कि सुनने वाले बड़े ज़हीन हैं अगर जम गए तो वारे-न्यारे हैं।

मुशायरे का पहला दौर तो खत्म हो गया तो दूसरे दौर में वसीम साहब से जब संचालक ने पूछा कि क्या इरादे हैं तो वसीम साहब ने कहा यहां तो यह सब होता ही रहेगा आप कहें तो पढ़े देता हूं।अब संचालक ने भी सुनने वालों से जरा हल्का हाथ रखने की अपील के साथ वसीम साहब को मंच पर दावत दी। वसीम साहब की हुस्न भरी पर्सनैलिटी, परंपरागत चूड़ीदार और शेरवानी की जगह सूट-बूट वाली वेशभूषा देखकर हाल का थोड़ा कोलाहल नम पड़ा।

शपथ ग्रहण करते प्रो. वसीम बरेलवी साहब

वसीम साहब ने मंच से कहा कि मेरी तरफ से दो बातें हैं कि एक तो गुजारिश है और एक अच्छी खबर है। कि अच्छी खबर यह है कि मैं केवल दो ही शेर पढूंगा। यह बात सुनकर लोगों ने तालियां बजाई और उन्होंने कहा कि गुजारिश यह है कि कृपया यह दो शेर आप मेहरबानी से खामोशी के साथ सुन लें। अब हाल खामोश हो गया। तब वसीम साहब ने एक कत़अ पढ़ा।

”तुम तो हंसमुख थे कब्र पर मेरी
किसलिए महबेयास बैठे हो
मैं जमाने से रूठ कर आया हूं
हाय तुम क्यों उदास बैठे हो”

पूरा हाल तालियों से भर गया। वसीम साहब ने फिर उठाया

तेरी बज़्म तक तो आऊँ
जो ये आना रास आए
यह सुना है जो गए हैं
वो बहुत उदास आये।


बस वसीम साहब ने महफिल लूट ली। तीन गज़लें इसके बाद एक के बाद एक सुनी गयीं और वसीम साहब जब थक गए तो मंच पर ही कुर्सी रखवा कर चौथी ग़ज़ल उन्हें बिठाकर सुनी गई। अब उनका सामान भी गेस्ट हाउस से अलीगढ़ के हॉस्टल में पहुंच गया और वह हॉस्टलों के मेहमान बन गए। अब बस महफिलबाजी, खाना-पीना और नशिस्तें।

तीन दिन वहां के स्टूडेंट्स ने वसीम साहब को अलीगढ़ से जाने ही नहीं दिया। दूसरे साल जब अलीगढ़ से दावतनामा आया उसकी निजामत राही मासूम रजा कर रहे थे। राही मासूम रजा को बायरन ऑफ अलीगढ़ कहा जाता था। उनकी बड़ी भारी शोहरत वहां थी। स्ट्रेची हाल में मुशायरा था। जहां लड़के नीचे और लड़कियां ऊपर बालकनी में बैठा करती थीं। तो जब राही मासूम रजा ने वसीम साहब को बुलाया तो इस जुमले से बुलाया कि अब मैं उस शायर को पेश करता हूं जो आपके ग़ुस्लखानों का शायर बन गया है। यह एक बड़ी बात थी। वसीम साहब की ग़ज़लों को लोग गुसल खाने में गुनगुनाने लगे थे।

1962 की बात है कि रेडियो शिमला से एक वैकेंसी निकली तो वसीम साहब शिमला में इंटरव्यू दे आये। कश्मीर के श्रीनगर यूनिवर्सिटी भी लेक्चरर की नौकरी का इंटरव्यू आया तो श्रीनगर गए।अब्दुल्ला डिग्री कॉलेज के जिलानी साहब श्री नगर में ही थे।अब वो दोस्त। उन्होंने औरों को भी इकट्ठा कर लिया। अब इंटरव्यू तो एक तरफ वहां शेरो शायरी की महफिलें सजने लगीं। पहलगाम, गुलमर्ग, सोनमर्ग, डल लेक के शिकारे, नेहरू पार्क की सैर होने लगी। शालीमार बाग में नशिस्तें और दावतें होने लगीं। जवानी जिस्म में थी. शायरी रगों में थी. दिल बल्लियों उछल रहा था, सो तफरीह होने लगी। करीब बाइस दिन हो गए घर बार भूले हुए। एक दिन नेहरू पार्क पर टहलते हुए अचानक से वापसी की हूक उठी।

दोस्तों से कहा घर जाएंगे दोस्तों ने कहा कि अरे कहां जाओगे दस दिनों तक तो कोई बस नहीं है। लेकिन वसीम साहब की हूक गहरी थी कि थमी नहीं। टूरिस्ट ऑफीसर से मिले तो अगले दिन सुबह की ही टिकट हो गई। ऑफिसर ने अपने कोटे से दे दी। रात को वहीं एक टैंट में रुकने की व्यवस्था भी कर दी, क्योंकि बस अलसुबह ही चल देनी थी। 28 मई को जब बरेली पहुंचे तो पता चला कि घर से तार पर तार दिए जा रहे हैं कि बरेली आ जाओ। इंसान किस कदर अपनी जिंदगी के हालातों में रह रहा होता है और हर होने वाले वाकये से बेखबर होता है लेकिन कुदरत उसके लिए सारे काम कर रही होती है। उसके भविष्य की नींव को तामीर कर रही होती है। अपनी बेबसी और बेख्याली में भी इंसान को कुदरत के नूरानी फैसले मिल जाते हैं।

बरेली कॉलेज में उर्दू लेक्चरर की वैकेंसी निकली थी और आखिरी तारीख उनतीस मई थी। बरेली कॉलेज के प्रोफेसर मोहम्मद तसलीम रिटायर हुए थे तो एक वैकेंसी क्रिएट हुई थी। उस्मान साहब दूसरे नम्बर पर थे। उस समय बरेली कॉलेज के प्रिंसिपल सुंदरम साहब थे, लेकिन उन दिनों कार्यवाहक प्रिंसिपल वीपी सक्सेना थे. मीटिंग में बरेली के कलेक्टर और सचिव कुँवर भुवन चंद्र मैनेजिंग कमेटी से थे, तो हेड ऑफ डिपार्टमेंट उस्मान साहब को बना दिया और वसीम साहब का लेचररर के रूप में अपॉइंटमेंट हो गया। अब वसीम साहब एक जगह टिक गए। पूरी दुनिया में उनके मुशायरे जगमगाने लगे। वो रफ्ता-रफ्ता लोगों के महबूब शायर बन गए। 1962 से 1980 तक लेक्चरर, 1980 से 2000 तक हेड ऑफ डिपार्टमेंट, 1998 से 2000 तक वसीम साहब फैकल्टी ऑफ आर्ट्स के डीन भी रहे।

बरेली में तमाम लोग वसीम साहब के चाहने वाले रहे। कई अधिकारी भी ऐसे आते जो इनके कलामों को बहुत पसंद करते। उसी जमाने में बरेली के इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में बीपी भगत आईएसी और डीएल आर्य इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में बड़े अधिकारी बन कर आए। यह लोग भी वकील साहब के बहुत चाहने वाले थे ।इन लोगों ने मिलकर एक लिटरेरी सोसायटी ऑफ बरेली बनाई जिसके संरक्षक बीपी भगत साहब थे। बरेली में लिटरेरी सोसायटी की तरफ से पहला मुशायरा दया नारायण टंडन “दया बरेलवी” और जमीर बरेलवी की याद में काष्ठ कला केंद्र में कराया गया।

बरेली के ही एक सिविल के वकील जितेंद्र मोहन माथुर थे, जो बरेली के लोगों में बहुत पॉपुलर थे और बरेली की सामाजिकता में रचे बसे इंसान थे। 45 साल की उम्र में ही उनकी मृत्यु नैनीताल में हो गई थी। यह भी लिटरेरी सोसायटी से जुड़े थे इनकी मृत्यु से पूरा बरेली गमगीन था। तब तय किया गया कि दूसरा मुशायरा लिटरेरी सोसायटी की तरफ से जितेंद्र मोहन माथुर की याद में किया जाएगा। बरेली के ही सुरेश चंद्र मेहरा “मेहर बरेलवी” भी शायरी की दुनिया में एक बड़े नाम थे। उन्होंने होली के मौके पर अपने घर पर दावत रखी वहां वसीम बरेलवी भी मौजूद थे और इनकम टैक्स के भगत साहब ने उनसे शेर सुनाने की गुजारिश की। भगत साहब जब से बरेली आये थे तब से ही वसीम बरेलवी को बहुत मानते थे उस दिन वसीम बरेलवी के शेर सुनकर भगत साहब इतने मुत्तासिर हुए कि उन्होंने तय कर लिया कि अब तीसरा मुशायरा लिटरेरी सोसायटी की तरफ से बरेली में वसीम बरेलवी पर रखा जाएगा जो “जश्ने वसीम” के नाम से जाना जाएगा। तो पूरा इनकम टैक्स डिपार्टमेंट इस मुशायरे की तैयारी में लग गया।

नगर निगम में इस मुशायरे को कराया गया। जनरल के इन कौल ने इस मुशायरे का इनॉग्रेशन किया। इस मुशायरे की अध्यक्षता हेमवती नंदन बहुगुणा ने जी थी। इस मुशायरे में इतनी भीड़ थी जिसको मिलिट्री से कंट्रोल करवाया गया। बरेली में सब जगह दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगे और मुंबई से खासतौर से मशहूर पार्श्व गायक महेंद्र कपूर को वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लें गाने के लिए बरेली बुलाया गया। ये तीन मुशायरे बरेली की यादों में आज भी वाबस्ता हैं। बाद में भगत साहब का ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया।एक बार वसीम बरेलवी के इलाहाबाद जाने पर भगत साहब ने उन्हें बताया कि फिराक गोरखपुरी भी अक्सर उनके पास आते थे।

एक दिन फिराक साहब जब थोड़ा मूड में थे तो भगत साहब से कहा कि भाई इलाहाबाद में भी मेरा एक जश्न “जश्ने वसीम” की तरह करवा दो। शायद भगत साहब जानते थे कि ऐसा होना मुमकिन नहीं क्योंकि जितना प्यार वसीम बरेलवी को बरेली की जनता करती है उतना प्यार शायद फिराक गोरखपुरी को इलाहाबाद में ना मिले जबकि फ़िराक गोरखपुरी बहुत बड़ा नाम है। तो ऐसा शानदार हुआ था “जश्ने वसीम” जिसकी गूंज दूर दूर तक शायरी की दुनिया में गयी थी।

बाद में वसीम बरेलवी बरेली में भी बहुत मुशायरे कराते रहे। बरेली के मुहल्लों में जो उम्दा नशिस्तें होती थीं उनमें भी अच्छे शायर अपने कलाम पढ़ते थे तो बरेली कॉलेज के मुशायरे हो या नगर महापालिका के कर्मचारी संघ के कराये मुशायरे हो भारत भर से आये शायरों के साथ हर बार दो तीन बरेली के शायरों को भी वसीम बरेलवी एक बड़ा मंच देते थे।

1962 में चीन से युद्ध हुआ तो सैनिकों की मदद के लिए भी एक मुशायरा वसीम बरेलवी ने करवाया जिसमें बेकल उत्साही और रफत सरोश जैसे शायर आये थे। इस मौके पर शायरों द्वारा चंदा भी एकत्रित किया गया था और सैनिकों की मदद को भेजा गया था। उसके बाद 1963, 64, 65, 66, 67 हर साल बरेली कॉलेज में उर्दू सोसायटी की तरफ से आल इंडिया मुशायरे कराये जाते रहे।फिर महानगर पालिका के कर्मचारी संघ के मुशायरे भी वसीम बरेलवी की सर्परस्तगी में होने लगे। उसके बाद दैनिक जागरण के मुशायरे बरेली में बहुत प्रसिद्ध हुए। इन सब मुशायरों में वसीम बरेलवी की भूमिका बहुत अहम रहती थी। लोकल शायरों को भी इस दौर में वसीम साहब ने आल इंडिया प्लेटफॉर्म दिए।

कल्चर को बढ़ाने के लिए वसीम साहब की सदारत में रोटरी क्लब, लायन्स क्लब भी मुशायरे कराता रहा। वसीम बरेलवी की वजह से बरेली की धरती और यहाँ के लोग इस इल्म का लुत्फ़ हमेशा लेते ही रहे। इस बीच 1975 में वसीम साहब की शादी मेरठ की नखत वसीम से हुई। नखत वसीम खान बहादुर एजाज खान की पोती और एशाक खान साहब की बेटी हैं। बहादुर एजाज खान मेरठ से एमएलसी और चेयरमैन भी रहे हैं। वसीम साहब और नखत वसीम के तीन बच्चे हुए। बड़ी बेटी बाँसरा वसीम आज कनाडा के सेंट जॉन्स में मिनिस्ट्री ऑफ बिजनेस की डायरेक्टर है, दूसरी बेटी मुनज्जा वसीम मुंबई के बिरला इंस्टिट्यूट में टीचर हैं, बेटा मौजूम वसीम शिकागो के पास केन्सस सिटी में कंप्यूटर इंजीनियर है।

वसीम साहब भारत सरकार की ओर से नेशनल काउंसिल ऑफ उर्दू लैंग्वेज प्रमोशन के वाइस चेयरमैन रहे। कपिल सिब्बल द्वारा इस महत्वपूर्ण पद के लिए उन्हें 2011 में नामित किया गया था। 2011 से 2014 तक वसीम साहब इस पद पर रहे। वसीम साहब ने जब इसका कार्यभार ग्रहण किया था, तब इसका बजट 18 करोड़ था और जब इस पद को छोड़ा तो इसका बजट इन्होंने 60 करोड़ तक करवा दिया था। इतना काम इस फील्ड में उन्होंने किया।

वैसे तो वसीम साहब को ना जाने कितने पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है. इसकी फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन 2013 में उत्तर प्रदेश का यश भारती पुरस्कार वसीम साहब को दिया गया। समाजवादी पार्टी की सरकार में 2016 में इनकी योग्यता और योगदान को देखते हुए कला और सांस्कृतिक क्षेत्र से एमएलसी का पद भी वसीम साहब को दिया गया। वसीम साहब को इस बाबत पहले से कुछ नहीं पता था। अप्रैल में लखनऊ के एक कार्यक्रम में वसीम साहब शिरकत फरमाने गए हुए थे, तब ईटीवी से उन्हें मुबारकबाद का फोन आया। उन्होंने जब पूछा कि मुबारकबाद किस बात की तो कहा गया कि आप टीवी खोलिए। होटल के कमरे में जब उन्होंने टीवी खोला तब उनके एम एल सी बनने की खबर टीवी पर प्रसारित हो रही थी।

2022 तक इस पद पर बने रहकर उन्होंने शिक्षा, गरीबों के इलाज, जरूरतमंद स्कूलों की मदद, पानी के नल हर इलाके में पहुंचाने का काम, करोना काल में लोगों का इलाज अपनी निधि से किया। इस निधि का समुचित इस्तेमाल अपनी जनता के लिए करने पर उनका सम्मान भी बहुत हुआ। वसीम बरेलवी आज पूरी दुनिया में अदब और उर्दू शायरी में चमकता हुआ नाम है। वसीम साहब की जो किताबें शाया है उनमें तबस्सुमें ग़म (1966), आँसू मेरे दामन तेरा (1972), मिजाज़, आँख आँसू हुई, मेरा क्या, आँखों-आँखों रहे, मौसम अंदर बाहर के, अन्दाज़े गुज़ारिश, वसीम बरेलवी के मशहूर शेर,और चराग़ हैं।

वसीम बरेलवी पूरी दुनिया में न जाने कितनी कितनी बार मुशायरों में और एकल भी पढ़ आये हैं।उनको सारी दुनिया से बहुत प्यार मिला।हर उम्र के लोगों ने उनकी शायरी को सराहा। वसीम साहब को जिंदगी में बहुत सारे लोगों का प्यार मिला।सारी दुनिया में उन्हें चाहा गया लेकिन वसीम साहब ने कुछ बहुत अच्छे दोस्त भी बनाए।

रईस सिद्दीकी जयपुर,आफताब अहमद खां हसनपुर, नैय्यर खान अमेरिका लास वेगास, मोहम्मद आदिब रिटायर्ड एडीजे, कबीर अहमद रिधौली, एनके सहगल पंजाब, फारुख हसन रहमानी जद्दा, प्रोफेसर निजामुद्दीन सिद्दीकी बरेली, डॉ दिनेश जौहरी, अमर उजाला के मालिक अशोक अग्रवाल. यह सब इनके दिल के बहुत करीब दोस्त हैं। बरेली के सुर्मा किंग एम हसीन हाशमी भी इनके बड़े कद्रदान रहे हैं। वसीम साहब को हमेशा अपने से बड़ा मानते रहे। कई मुशायरे उन्होने बरेली में करवाये। शायरी, शायरों और मुशायरों के वो बड़े शौकीन थे।

आज रेख़्ता सहित न जाने कितने प्लेटफॉर्म वसीम बरेलवी को अपने यहाँ से प्रस्तुत करने में फ़ख्र महसूस करते हैं। यू ट्यूब पर वसीम बरेलवी की ग़जलें और शेर छाए हुए हैं। लोग उनको बहुत सुनते हैं। बरेली से डॉक्टर दिनेश जौहरी जब स्वास्थ्य मंत्री थे और उनके बेटे राहुल जौहरी की शादी दिल्ली में तय हुई थी तब बरात में अमर उजाला के मालिक अशोक अग्रवाल और वसीम बरेलवी भी साथ थे। राहुल जौहरी चूँकि मेरे भी दोस्त हैं तो मैं भी उस बरात में साथ था। गजरौला में जब दोपहर के खाने के लिए बारात रोकी गई और वहां एक होटल में खाना हुआ। खाने के बाद वसीम साहब से गुजारिश की गई कि कुछ सुनाइए तब उन्होंने अपनी एक ताज़ी गज़ल सुनाई

मिली हवाओं में उड़ने की यह सजा यारो
कि मैं जमीन के रिश्ते से कट गया यारों

वसीम बरेलवी

यह ग़ज़ल मेरे ज़हन में बनी रही। कुछ समय बाद यह ग़ज़ल मैंने लता मंगेशकर और जगजीत सिंह की आवाज से रेडियो में सुनी। तब मुझे लगा कि यह तो सुनी हुई गजल है। यादाश्त पर जोर डालने पर याद आया कि हां यह वही ग़ज़ल है जो वसीम साहब ने उस दिन पहली बार हम लोगों को सुनाई थी। बरेली वालों के लिए तो वसीम बरेलवी हमेशा ही मौजूद रहते हैं लेकिन उनकी शायरी पूरी दुनिया के लिए मौजूद है। बरेली को अंतरराष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने वाले वसीम बरेलवी बरेली की हमेशा शान रहेंगे। बरेली की जान रहेंगे।

जगजीत सिंह द्वारा गाई गयी वसीम साहब की एक ग़ज़ल

आते आते मिरा नाम सा रह गया 

उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया 

रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई 

दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया 

वो मिरे सामने ही गया और मैं 

रास्ते की तरह देखता रह गया 

झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए 

और मैं था कि सच बोलता रह गया 

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे 

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया 

उस को काँधों पे ले जा रहे हैं 'वसीम' 

और वो जीने का हक़ माँगता रह गया
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