नेशनल फ़िल्म अवार्ड्स के नाम रही गुरुदत्त की यह फ़िल्म
LIMELIGHT MEDIA: कागज के फूल के फ्लॉप हो जाने और समीक्षकों द्वारा फिल्म को दिए गए बहुत खराब रिव्यूज से उकता कर गुरुदत्त ने भविष्य में किसी भी फिल्म को निर्देशित करने का विचार त्याग दिया था।
यही वजह थी कि 1962 में गुरु दत्त ने साहब, बीवी और गुलाम को निर्मित तो किया लेकिन इसका निर्देशन खुद न करते हुये अपने अभिन्न साथी अबरार अल्वी से करवाया। हालांकि इससे पहले गुरुदत्त ने सत्येन बोस और नितिन बोस से भी निर्देशन की बात की थी।
साहब बीवी और गुलाम बंगाली उपन्यासकार विमल मित्र का लिखा बंगाली उपन्यास है। इस उपन्यास में 19वीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल में सामंतवाद और जमींदारी के पतन की कहानी के साथ-साथ पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्रियों की भूमिका पर भी विमल मित्र ने अपनी कलम चलाई है।
विमल मित्र और शरत चंद्र बांग्ला साहित्य के दो ऐसे पुरोधा लेखक हैं जिन्होंने उस समय अपने साहित्य में स्त्री को भरपूर जगह दी। उनके साहित्य में स्त्री कमजोर नहीं है। वह एक धुरी की तरह काम करती है। सब कुछ उसके इर्द-गिर्द ही घूमता नजर आता है।
साहब, बीवी और गुलाम की स्त्री भी अपनी मर्यादाओं और परिधियों को लाँघती है। वह परंपरागत सामंतवाद और पुरुष वर्चस्व वाले समाज में बेड़ियों में बंधी हुई है लेकिन उन बेड़ियों को झनझना कर खोलने का साहस करती है। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही थी और इसको चार फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले थे। गुरुदत्त को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार, मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का, अबरार अल्वी को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का और वीके मूर्ति को सर्वश्रेष्ठ छायाकार का फिल्म फेयर मिला था। राष्ट्रपति द्वारा हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए इस फिल्म को 1962 का रजत पदक भी दिया गया था।
इस फिल्म में भूतनाथ के किरदार के लिए गुरुदत्त स्वयं नहीं आना चाहते थे। उनकी पहली पसंद शशि कपूर थे लेकिन बाद में भूतनाथ का किरदार गुरुदत्त को ही निभाना पड़ा। छोटी बहू का जो किरदार मीना कुमारी ने किया है उस किरदार को वहीदा रहमान निभाना चाहती थीं। इसके लिए वहीदा ने गुरुदत्त पर दबाव भी डाला, मगर गुरुदत्त ने वहीदा की कम उम्र को देखते हुए मना कर दिया। बाद में वहीदा ने फिल्म का हिस्सा बनने के लिए जबा का किरदार अबरार अल्वी से लिखवाया और उस किरदार को निभाया।
स्क्रीन पर फिल्म उभरती है एक आलीशान हवेली के खण्डहरों से। जहां नए निर्माण के लिए अतुल्य चक्रवर्ती नाम का एक ओवर सियर आता है। अतुल चक्रवर्ती दरअसल भूतनाथ है जिसने कभी हवेली में पनाह पाई थी। अचानक से एक कोलाहल में पता चलता है कि खुदाई में एक कंकाल निकला है। अतुल्य चक्रवर्ती कंकाल के हाथ में कंगन को देखते ही पहचान जाता है, यह तो छोटी बहू हैं, जो गायब हो गयी थीं आखिर उनका कंकाल हवेली में क्या कर रहा है। क्या वो पुरुष अहम का शिकार हो गयी थीं। इसी के साथ फ्लैशबैक में फिल्म शुरू होती है।
मोहिनी सिंदूर के कार्यालय में काम करते हुए भूतनाथ मालिक की बेटी जबा के संपर्क में आता है। जबा वाचाल है और भूतनाथ शर्मिला। इन दोनों ही विशेषताओं से उनके बीच भी एक संबंध पनपता है। भूतनाथ अपने गांव के भाई बँसी के पास हवेली में रहता है। जिसमें वह भाई काम करता है और जो हवेली हर शाम तवायफों के घुंघुरुओं से आबाद हो उठती है।
या तो घुंघरू हवेली तक आते हैं या छोटे बाबू अपनी बघ्घी की घंटियों को टंटनाते हुए घुंघुरुओं तक पहुंच जाते हैं। मझले बाबू डीके सप्रू हो या छोटे बाबू रहमान साहब इन दोनों की बीवियां हवेली में दम तोड़ती नजर आती है।
सप्रू को देखकर जमींदारी अकड़ और सामंतवाद की जिंदा छवि जैसे आँखों में कौंध उठती है। जब छोटी बहू मीना कुमारी छोटे बाबू से हवेली में रुकने को कहती है तो छोटे बाबू कहते हैं कि मर्द कभी घर में बैठते हैं। छोटी बहू जब कहती है कि हम भी खाली परेशान हो जाते हैं। आखिर क्या करें? तब छोटे बाबू जवाब देते हैं कि तुम भी हवेली की दूसरी बहुओं की तरह जेवर तुड़वाया करो और जेवर बनवाया करो।
तब छोटी बहू एक उदास उसाँस छोड़ते हुए कहती है दूसरी बहुओं की तरह। छोटी बहू ने मोहनी सिंदूर के विज्ञापन को देखा है और उसमें लिखा है कि जो भी इस सिंदूर को पहनता है उसका प्रियतम उससे दूर नहीं जाता। जब छोटी बहू को पता चलता है कि हवेली में ही भूतनाथ है जो मोहिनी सिंदूर में काम करता है तब उसे गुप्त दरवाजे से अपने शयनकक्ष में बुलवाती हैं और मोहिनी सिंदूर की सच्चाई के बारे में पूछती हैं।
बेचारा भूतनाथ क्या करे! यह विज्ञापन तो वाचाल जबा की कारस्तानी है मोहनी सिंदूर को बेचने के लिए। छोटी बहू मोहनी सिंदूर मंगवाती हैं और पहनती हैं लेकिन विज्ञापन तो झूठा निकला। मोहिनी सिंदूर प्रियतम को नहीं रोक पाता। करवा चौथ का व्रत है छोटी बहू को पति के चरणों से स्पर्श करें पानी से अपने व्रत को खोलना है और छोटे बाबू घुंघुरुओं की सेज़ पर नशे में धुत पड़े हैं तब भी छोटी बहू भूतनाथ पर ही भरोसा करती है। उसे तवायफ के कोठे पर भेज पति के अंगूठे से पानी को छुलवा लेती हैं।
छोटी बहू की बेकरारी लगातार बढ़ रही है वह सामंतवाद और पुरुष वर्चस्व की जंजीरों में बंधी बेचैनी से उनको हिला रही है कि एक दिन पति को रोकने की बात कहती है तो छोटे बाबू कहते हैं कि तुम शराब पी सकोगी। एक धक्के से पीछे हटी छोटी बहू की आंखें फैल गई हैं, लेकिन छोटी बहू को तो बंधन खोलने हैं। वह फिर भूतनाथ को बुलाकर शराब लाने के लिए पैसे देती है। भूतनाथ भी स्तब्ध लेकिन वह गुलाम है उसे बीवी यानी छोटी बहू के आदेश का पालन करना है।
पति को शराब परोसती छोटी बहू पति के जबरदस्ती करने पर शराब पीती है। छोटी बहू को पर्दे पर जिस तरह से मीना कुमारी ने निभाया है यह दृश्य भारतीय सिनेमा के अविस्मरणीय दृश्य बन पड़ा है। छोटी बहू के पहली बार शराब पीने वाले दृश्य में आप स्वयं भी तटस्थ नहीं रह पाएंगे। वेदना, क्रूरता, पाशविकता सब कुछ मिलकर जैसे उससे गीत के दृश्य की रचना कर रहे होते हैं। अब छोटी बहू को अपना गम भुलाने का रास्ता मिल गया।
धीमे धीमे वो शराब की आदी हो गई और शराब लाने वाला उनका भूतनाथ अपने गुनाहों में खोया हुआ है। मीना कुमारी के बेजोड़ अभिनय से फिल्म खजाने की तरह भरी हुई है। रहमान भी साथ देते नजर आते हैं। भूतनाथ के चरित्र में गुरुदत्त जैसे एक बेचारे के रूप में हैं कि वह हर चीज को देख रहा है समझने का प्रयास कर रहा है और आदेशों का पालन कर रहा है। चाहे छोटी बहू हो या जबा, जमीदारों की हवेली हो या फिर मोहनी सिंदूर का कार्यालय भूतनाथ उज़बक की तरह सिर्फ कर रहा है। उसे जबा की बात बुरी लगती है वह इसकी शिकायत छोटी बहू से भी करता है।
छोटी बहू पर उसे भरोसा है। इतना भरोसा कि उनके लिए शराबी भी ला देता है और जबा जबा तो तितली है उभरते यौवन की किलकारी में मस्त।मझली बहू अकेले पूजा पाठ करते हुए इतनी सनका गई हैं कि एक बार शौचालय जाने के बाद सौ मर्तबा हाथ होती है।उनके हाथ धोने की गिनती उनकी सहायिका कर रही होती है। नींद में है लेकिन हाथ धोती ही जा रही है और हवेली की घड़ियों में चाबी भरने वाला अपने अट्टाहासों से पूरी हवेली को गुँजा देता है। वह ध्वस्त होती जमीदारी और सामंतवाद पर अपना अट्टहास करता है। अंग्रेजी के कवि हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय की भी यह अविस्मरणीय भूमिका है। सविनय बाबू के रूप में नजीर हुसैन ने भी प्रभावित किया है। बँसी जो भूतनाथ का रिश्तेदार है वह भी अपने मालिक की चाटुकारिता और सेवा में दिन-रात लट्टू बना हवेली में घूमता है।
साहब बीवी और गुलाम का संगीत दिया है हेमंत कुमार ने और इसके गीतों की रचना की है शकील बदायूँनी ने। हेमंत कुमार बचपन से ही गीत संगीत के शौकीन थे उन्होंने अपनी शुरुआत टैगोर के गीतों को गाकर की थी। कोलंबिया से उनके बारह रिकॉर्ड निकले थे।
1945 में एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उन्होंने सबसे पहली फिल्म पूर्व राग की। यह फिल्म चली ही नहीं। कई फिल्मों में संघर्ष के बाद आनंदमठ (1952) में उनके संगीत को सराहा गया। साहब बीवी और गुलाम में शकील बदायूनी और हेमंत कुमार ने बीस साल बाद एक साथ काम किया जो मील का पत्थर साबित हुआ।
इस फिल्म में हेमंत दा ने पहली बार गीता दत्त के समकक्ष आशा भोंसले को लाकर खड़ा किया जबकि आशा भोसले ने लगभग इस फिल्म में गीतादत्त की ही शैली को अपनाया लेकिन फिर भी इस फिल्म से ही उन्होंने अपनी एक स्वतंत्र छवि को उकेरा। वहीदा पर फिल्माए गीत “भंवरा बड़ा नादान है” में आशा के स्वर में झटको और ट्विस्ट के सहारे मिश्र गात राग में हेमंत कुमार ने प्रेम और श्रृंगार की भावनाओं को बहुत ही अनोखी अभिव्यक्ति प्रदान की है जो फिल्म संगीत में अद्वितीय है।
“साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी” में जमीदारों की महफिल की तड़क-भड़क से भरा गीत जो कि सिंधु भैरवी राग में पिरोया हुआ है और दूसरी तरफ मुज़रे का ही गीत जिसमें तबले और घुंघुरुओं की छनक धनक दादरा ताल छह मात्रा में अपना प्रभाव दर्शकों के दिल के भीतर तक असर करता है “मेरी जाँ ओ मेरी जाँ अच्छा नहीं इतना सितम”, जिसमें आशा ने अपनी नशीली और मदमस्त आवाज का तड़का लगाया है।
इस फिल्म में आशा भोसले के गाए तीनों गीत उनके जीवन के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से हैं। फिल्म में मीना कुमारी के लिए गीता दत्त ने गीत गाए हैं। पति के प्यार के लिए व्याकुल छोटी बहू अपने शयनकक्ष में अपना सिंगार कर रही है। सज धज रही है और राग मेघ पर आधारित “पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे” गा रही है। यह गीत जितना परिपक्व गायकी का है उतना ही अच्छा इसे वीके मूर्ति में फिल्माया भी है। इस गीत को हेमंत कुमार ने ऐसी स्वर लहरियों के साथ गूँथा है कि साड़ी की परतें खुलती हुईं, लंबे लंबे बालों की चोटी होती हुई, झुमके और कँगन पहनाए जाते हुए सभी गतिविधियां संगीत की लय पर संपन्न होती प्रतीत होती हैं। इस फिल्म का यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ।
दूसरा गीत अपने पति को अपने पास रखने के लिए छोटी बहू बेकरार हैं “न जाओ सैंया छुड़ा के बैयां कसम तुम्हारी” की नशीली अभिव्यक्ति भी गीतादत्त की ही देन है। इस फिल्म के गाने देखते सुनते हुए गायिका, अभिनेत्री और संगीतकार इन तीनों के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा होता है। इस गीत की छलकती मादकता का क्या कहना।
शकील हेमंत का जादू बहुत समय तक इस फिल्म के माध्यम से लोगों पर छाया रहा। इसके बाद इस जोड़ी को काम भी खूब मिला। साहब बीवी और गुलाम एक ऐसी निराली करुणि कविता है जो आपको अवसाद में नहीं डुबोती वरन उसकी जगह आत्मचिंतन और सर्जन के आनंदमय जीवन की ओर ले जाने को प्रेरित करती है।
गुरुदत्त हमेशा ही कला की श्रेष्ठता को पहला स्थान देते हैं। गुरुदत्त ने सिनेमा को उस मुकाम तक पहुंचाया जहां सिनेमा किसी भी कला की श्रेष्ठता के आगे सीना चौड़ा करके खड़ा हो सकता है। गुरुदत्त अपने सिनेमा को काव्यात्मक अनुभव की तरह भी प्रस्तुत करते रहे हैं। उनकी फिल्मों को देखते हुए दर्शक एक कविता को पढ़ने जैसा ही खुद को भिगोता रहता है।
भले ही इस फिल्म का निर्देशन गुरुदत्त ने खुद न करके अबरार अल्वी से कराया है लेकिन फिल्म के दृश्यों पर शॉट टेकिंग और सिनेमैटोग्राफी के कोणों पर गुरुदत्त की अपनी झलक स्पष्ट दिखाई देती है।
जमीदारों की विशाल हवेली को फिल्म में अनेक रूपों में दिखाया गया है। सुबह-सुबह की रोशनी में नहाई हवेली, शाम को चिरागों की रोशनी में झिलमिलाती हवेली। रात के अंधेरे और सन्नाटे में मुंदी हुई चीखों में गूँजती और निरूपित होती हुई हवेली और अंत में ध्वस्त खंडहर में तब्दील होती हवेली। कोई भी शोषणकारी व्यवस्था अंत में अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार हो जाने के लिए अभिशप्त है।
दरअसल यह संसार ही विघटनकारी है। यहां सब कुछ धीरे-धीरे नष्ट हो जाना है। मनुष्यता के शोषण से उपजाया हुआ। सामंतवाद से जूझते समाज को जहां उसके विघटन से सहारा मिलता दिख रहा है वही औरत होने की ताकत को देती हुई भी यह फिल्म प्रतीत होती है। औरत वह सब कर सकती है जो एक मर्द कर सकता है। औरत जानती है कि औरत होने की मर्यादा का मूल्य भी तभी है जब पुरुष उस मर्यादा की गरिमा को समझ सके।
साहब बीवी गुलाम भारतीय सिनेमा की एक अविस्मरणीय फिल्म है अभिनय, निर्देशन, गीत संगीत और सिनोमेट्रोग्राफी का बेजोड़ नमूना भी है।
- डॉ राजेश शर्मा