मूवी ‘प्यासा’ ने सिनेमा के लिए जगा दी थी प्यास

मूवी ‘प्यासा’

फिल्म रिव्युः डॉ राजेश शर्मा

LIMELIGHT BOLLYWOOD: आज जिस तरह के समाज में हम जी रहे हैं उसकी छवि को 66 वर्ष पूर्व ही गुरुदत्त ने प्यासा में दिखा दिया था। खुदगर्ज, मतलबी, स्वार्थी और सिर्फ पैसे को वरीयता देता समाज। अपने शौक के लिए प्यार करने वाले और अपने आराम और सुखों के लिए प्यार का सौदा करने वालों से भरे हुए इस समाज का आईना बना कर उन्होंने प्यासा को प्रस्तुत कर दिया था। प्यासा में शायर है, प्रेम से उपजे गीत है, रोमांस भी है, लेकिन धन के अभाव में दहलीज पर दम तोड़ती हताशा भी है, जो परित्याग से जन्मी है। यह परित्याग परिवार से है, प्यार से है, समाज से है।

भूख से बेहाल हो पढ़ा-लिखा नायक मजदूरी करता है और हथेली पर धरी चवन्नी से अपना पेट भरना चाहता है कि खाने का कौर मुंह में जाते ही पता चलता है कि चवन्नी खोटी है। यह चवन्नी खोटी है या वह मोटे पेट वाला सेठ जो मन भर समान अपनी मोटर में लदवा कर ले जाता है और बदले में हथेली पर खोटी चवन्नी छोड़ देता है। बेकार भाई को जब माँ अपनी ममता में डूब कर घर लाकर कुछ पकवानों को पल्लू से ढक कर अपने बेटे को खिला कर तृप्त होना चाहती है तो दूसरे भाई अपनी ही मां को अपने निकम्मे भाई का ताना देते हुए कहते हैं कि किसने तुम्हें और इसके बाप से कहा था कि निखट्टू पैदा करो। अपनी ही मां से इतने घिनोने शब्द।

धक्के देकर बार-बार भाई को घर से निकाल देना, जिस प्रेमिका के लिए शायर ने दिल चीर कर गीत निकालें, वह अपने जीवन के सुखों के लिए पैसे वाले की गोद में बैठ गई। दिल चीर कर निकाले इन प्रेम गीतों को समझा एक पारंपरिक सड़क छाप वेश्या ने। इस वेश्या की मौलिकता को जो समाज रोज छिन्न-भिन्न कर रहा था, उसकी देर से उसको नोच रहा था. उस मौलिकता की आत्मा की गंध में गुलाबो उन प्रेम ने नहाई नज़्मों को पढ़कर शायर की मौलिकता को समझकर अपने जिस्म से कमाया सब कुछ दाँव पर लगाकर शायर के वजूद को, उसके दिल को, उसकी तड़प को, उसके प्रेम को सबके सामने पूरे जमाने के सामने परछाइयों के रूप में लेकर आती है।

खुद नेपथ्य में खड़ी गुलाबो उस शायर को समाज के सामने जिंदा कर देती है ,जो समाज की निगाह में मर गया है और उस शायर के अजीज़ जो यह जानते हैं कि वह नहीं मरा वो उसे जिंदा ही मार देने पर उतारू हैं क्योंकि अब उस शायर के नाम से उन्हें पैसे की कमाई हो रही है। एक जिंदा वजूद के लिए रिश्तो, संबंधों और पैसे की कब्र बन रही है और उस कब्र पर गुलपोशी के लिए पूरा समाज अपने हाथों में अपनी पसंद के फूल लिए खड़ा है। लेकिन समाज के छल और कपट से आक्रोशित नायक द्वारा अपने मौलिक अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देना इस चरम सीमा की हताशा को प्रस्तुत करना ही प्यासा होना है, जिसे गुरुदत्त ने इतनी खूबसूरती से निभाया है कि देखते ही बनता है। गुरुदत्त के चेहरे के क्लोजअप को सिनेमैटोग्राफर वीके मूर्ति ने पूरी फिल्म में इतने एंगेल्स से पेश किया है कि हर बार किरदार का नया रंग उसकी पीड़ाओं में,विवशताओं में, टूटन में और हताशा में अपने पूरे उरूज़ के साथ दिखता है।

प्यासा सन 1957 में सिल्वर स्क्रीन पर आई थी। विश्व प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने प्यासा को दस सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फिल्मों की श्रेणी में शीर्ष पाँच में रखा है। सन 2005 में भी टाइम पत्रिका ने प्यासा को सर्वश्रेष्ठ सौ फिल्मों में शामिल किया था।

टाइम पत्रिका का कहना है कि भारतीय फिल्मों में अब भी परिवार के प्रति निष्ठा और सभी का दिल प्यार से जीतने की भावना देखने को मिलती है। टाइम की सूची में पहले स्थान पर सन ऑफ द शेख (1926) दूसरे पर डोड्सवर्थ (1939) तीसरे पर कैमिली (1939) चौथे पर एन अफेयर टू रिमेंबर (1957) पांचवे स्थान पर प्यासा (1957) को रखा गया है।

प्यासा की कहानी को अबरार अल्वी ने लिखा है। दरअसल प्यासा फिल्म अबरार अल्वी की निजी जिंदगी से जुड़ी एक घटना को आधार बनाकर लिखी गई कहानी है जिसमें वैश्या गुलाबो का महत्वपूर्ण दखल है।

अबरार अल्वी ने अपनी किताब टेन इयर्स विद गुरुदत्त में इसका जिक्र किया है। बड़े विस्तार और भावनात्मक तरीके से अबरार अल्वी गुलाबो नाम की एक सड़कछाप वैश्या से मुंबई के समुद्र किनारे मिलने की कहानी बताते हैं।

अपने दोस्तों के साथ घूमने निकले अबरार अल्वी को दोस्तों द्वारा तीन लड़कियां पेश की जाती हैं। जिसमें दो पंद्रह सोलह साल की और तीसरी अठाइस साल की होती है। इन मामलों में अनाड़ी अबरार को मजबूरी में एक लड़की चुननी पड़ती है तो वह अठाइस साल की औरत को चुनते हैं और रात भर एक कुटीर में उस औरत से बातें करते रहते हैं। उसका नाम गुलाबो होता है।

फिल्म प्यासा में गुलाबों की पहली झलक पीठ पीछे से है एक महीन पारदर्शी साड़ी में लिपटी। फ़िल्म के साथ ही गुलाब का चरित्र भी खुलकर सामने आता है। वह एक पारंपरिक सड़क छाप वेश्या है लेकिन उसके अंदर एक धड़कता दिल और वज़ूद की गरिमा भी है। वह दिल के नाज़ुक तारों का सम्मान करना जानती है। विजय एक ग्राहक के रूप में उसके लिए कुछ भी नहीं लेकिन एक शायर के रूप में वह अपना सब कुछ उस पर निछावर कर देती है। शायर के लिए एक प्रेम और सम्मान उसके भीतर है।

अबरार और गुलाबों के बीच पनपे रिश्ते की ये असल कहानी है। अबरार चूँकि एक लेखक हैं तो वह गुलाबों के किरदार को अंदर तक टोहते हैं। प्यासा में गुलाबों के कुछ डायलॉग तो हूबहू वही है जो उस ओरिजिनल गुलाबों ने अबरार अल्वी से कहे थे। अबरार अल्वी अपनी व्यस्तताओं के चलते उस गुलाबो पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए। तब वो मिस्टर एन्ड मिसेज 55 में व्यस्त हो गए थे।

अबरार दो-चार बार उससे मिले भी लेकिन वह गुलाबो टीबी का शिकार हो गई थी और एक बार जब भी उससे मिलने गए तब उसकी शवयात्रा गुजर रही थी और उसके चेहरे को ढका नहीं गया था। इस कहानी को जब अबरार अल्वी ने गुरुदत्त को सुनाया तो गुरुदत्त कहानी पर सम्मोहित हो गए। आवश्यकतानुसार जोड़ घटाव किए गए लेकिन प्यासा की मूल कहानी यहीं से उपजी है। पहले इस फ़िल्म का नाम प्यास रखा गया था जिसे बाद में प्यासा किया गया।

फिल्मी हलकों में यह कहानी भी चलती है कि प्यासा की मूल कहानी हिमाचल के एक असफल कवि चंद्रशेखर प्रेम की कहानी है जिसको अपनी रचनाओं को मुंबई जाकर बेचना पड़ा था। उसने उर्दू और हिंदी में बहुत सी किताबें लिखी परंतु उनके लिए वह कभी प्रसिद्ध ना हो सका।

फिल्म का अंत जब विजय अपने वजूद को ही नकार देता है फिल्म का क्लाइमेक्स तो है ही, लेकिन यह इस दुनिया के चेहरे पर एक नकाब हटाने जैसा भी है जिसके नीचे समाज का वीभत्स चेहरा नजर आता है। फिल्म का अंत परिस्थितियों से समझौता कर लिया जाए या नहीं इस पर भी बहुत विचार विमर्श हुआ था लेकिन अंत में फिल्म का अंत गुरुदत्त ने अपनी पसंद से ही किया। एक धीमी शुरुआत के बाद प्यासा सफल रही।

विडंबना ही कही जाएगी गुरुदत्त के जीवन काल में तो नहीं परंतु उनके बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी फिल्म को बहुत सराहना मिली। फ्रांस जर्मनी में फिल्म बहुत पसंद की गई। फ्रेंच प्रीमियर में इसका शो हुआ। 9वें अंतरराष्ट्रीय एशियन फिल्म फेस्टिवल में भी इस को प्रदर्शित किया गया। भारत के फिल्म इंस्टिट्यूट में तो सिलेबस में इस फिल्म को भगवान का दर्जा मिला हुआ है।

गुरुदत्त दरअसल बहुत पैशनेट फिल्म डायरेक्टर थे। वह ज्यादा बातें नहीं करते थे. वहीदा रहमान कहती हैं कि जब लोग बातें नहीं करते थे। वहीदा रहमान बताती हैं कि जब लोग उनके आसपास बात कर रहे होते थे, तो वह किसी की को भी नहीं सुन रहे होते थे। वह सिर्फ अपने विचारों में ही खोए रहते थे। फिल्में बनाना उनके अंदर एक जुनून था। एक अभिनेता के रूप में गुरुदत्त हमेशा खुद को कम आँकते थे। अपनी खुद की फिल्मों में वह हमेशा अपनी दूसरी या तीसरी पसंद होते थे।

सत्या सरन ने अपनी किताब टेन ईयर्स विद गुरुदत्त में सिनेमैटोग्राफर वीके मूर्ति के हवाले से लिखा भी है कि गुरु दत्त अभिनेता के तौर पर कैमरे का सामना करने में झिझकते थे। वह अपने अभिनय की पर्याप्त रूप में समीक्षा नहीं कर पाते थे। प्यासा के लिए भी उन्होंने ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार से बात कर रखी थी। दिलीप साहब ने पटकथा सुनने के बाद हाँ भी कह दी थी, लेकिन फिर वह सेट पर नहीं आए।

बाद में एक इंटरव्यू में दिलीप साहब ने इसकी सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने प्यासा फिल्म इसलिए नहीं की क्योंकि उसका किरदार उनकी फिल्म देवदास से बहुत मिलता हुआ था। बाद में गुरुदत्त ने ही नायक का किरदार निभाया और बहुत ही शानदार तरीके से निभाया। वीके मूर्ति ने भी गुरुदत्त के किरदार को क्लोजअप फ्रेम के जरिए जिन आकृतियों और इमोशंस के साथ प्रस्तुत किया है यह भी सिनेमा की धरोहर है। गुरुदत्त बहुत गंभीर अभिनेता रहे हैं। उन्हें भारत का आर्सन वेल्स भी कहा जाता रहा है।

1950 वें दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मकता फिल्मों के व्यवसाई चलन को विकसित करने के लिए वह प्रसिद्ध हैं। उदय शंकर के इंडिया कल्चर सेंटर से कला व संगीत के गुण सीखने वाले गुरुदत्त शुरुआत में कलकत्ते के लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी करते रहे। बाद में व्ही शांताराम के कला मंदिर, प्रभात फिल्म कंपनी व नवकेतन होते हुए गुरुदत्त ने अपनी पहचान बनाई। अपने निर्देशन की शुरुआत उन्होंने नवकेतन की बाजी फिल्म से की थी।

प्यासा की नायिका गुलाबो का किरदार निभाने वाली वहीदा रहमान ने भी अपने भावप्रवण अभिनय से फिल्म को सजाया है। वहीदा ने अपना पहला रोल रामकृष्ण प्रसाद की फिल्म रोज़ुलु मरई में किया था। इस फिल्म में उनपर फिल्माया गया एक गाने पर उनके नृत्य ने उन्हें रातों-रात स्टार बना दिया था। गुरुदत्त जब हैदराबाद गए तो उन्होंने वहीदा के बारे में वहां सुना बल्कि वह एक डिस्ट्रीब्यूटर के दफ्तर में बैठे थे कि बाहर शोरगुल हुआ। एक कार को युवाओं ने घेर लिया था उस कार से एक लड़की निकली वहीदा।

डिस्ट्रीब्यूटर ने बताया कि यह लड़की रातोंरात मशहूर हो गई है इनका डांस सनसनी बन गया है। गुरुदत्त बाद में वहीदा से मिले और अपनी फिल्म सीआईडी में रोल दे कर वहीदा कोब्रेक दिया। सीआईडी में उनके नृत्य कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना बहुत ज्यादा हिट हुआ और फिल्म की हीरोइन शकीला से भी ज्यादा चर्चा वहीदा के अभिनय की हुई। इसके तुरंत बाद गुरुदत्त ने वहीदा को प्यासा के लिए साइन कर लिया।

प्यासा में जिस तरह से प्रकाश और छाया ओं का इस्तेमाल किया है वह फिल्म इतिहास में दर्ज हो चुका है। ब्लैक एंड वाइट होने के कारण कुछ दृश्यों की खूबसूरती तो देखते ही बनती है जो शायद रंगीन फिल्मों में कभी दिखाई नहीं देती। श्वेत और श्याम फोटोग्राफी अपनी रचनात्मकता के सर्वोत्तम रूप में प्यासा में है। रात के समय शहर की सूनी सड़कें, लैंप पोस्ट, धुंधलके में डूबे पार्क, बेबस वेश्याओं के इर्द-गिर्द रहस्यमय वातावरण, अंधेरी सीढ़ियां रोशनी के डरावने वृत्त सब कुछ एक नई दुनिया में प्रवेश होने जैसा है।

फिल्म का संगीत दिया है एसडी बर्मन साहब ने। प्यासा के गीत साहिर लुधियानवी के श्रेष्ठतम गीत माने जाते हैं और कथानक के अनुरूप पूंजीवादी सभ्यता और संस्थाओं की शोषक प्रवृत्तियों पर आक्रमण करता उनका गीत यह महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया रफी के स्वर में स्वतंत्रता के बाद के दशक की टूटती आस्थाओं का प्रतिनिधि गीत बन गया।

यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है गीत एक फुसफुसाहट से शुरू होता है और जैसे कि एक वेदनागर्भित चित्कार में बदलता जाता है। प्रतीकात्मक रूप में यह दृश्य पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्तित्व के क्षरण और एक चरम बिंदु पर संपूर्ण नकार के बाद आत्मा पुनर्प्राप्ति के ड्रामेटिक नरेशन है। इसे देखकर रिंबो का जीते जी अपने कवि होने का परित्याग याद आ जाता है। इसी तरह का एक और गीत यह कूचे यह नीलम घर दिलकशी थे. ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के। एसडी बर्मन का संगीत हमेशा मानव मन में हिलोरें हिलाने वाला होता है।

विषाद और निराशा की भावनाओं को स्वर देने में, दिल चीरने जैसी अनुभूति देने में भी जिन साज़ों और रागों का इस्तेमाल बर्मन साहब ने किया उसने प्यासा के गीतों को सही स्तर पर ले जाकर स्थापित किया है। कथानक, गीत के बोल और बर्मन का संगीत यह सब कालजयी बन गया।

हेमंत के गाए लोकप्रिय गीत जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला कि बिलावल आधारित कंपोजीशन में तीव्र मध्यम के प्रयोग से बर्मन साहब ने गीत की धुन में गजब की गंभीरता ला दी है। पूंजीवादी वर्ग भेद की सभ्यता को मिटाने का उदघोष जहाँ बेहद ऊंची पट्टी पर बर्मन ने रोंगटें खड़े कर देने वाले अंदाज में किया वहीं प्यासा के कई गीत उन्होंने कोमल या शोख सुरों को लेकर सृजित किए हैं।

गीता के स्वर में जाने क्या तूने कहीं जाने क्या मैंने सुनी या गीता रफी का गाया हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा ले तो या फिर गीता का ही गाया बंगाल की कीर्तन शैली में रचा श्रंगार गीत आज सजन मोहे अंग लगा लो इन सब गीतों को बर्मन दा ने अपने संगीत से सजाकर इनको नई ऊंचाइयां दी जिन्हें फिल्मी जगत कभी नहीं भुला पाएगा।

तेल मालिश का गीत सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए तो रचकर उन्होंने तेल मालिश का प्रतिनिधि गीत बना दिया। तेल चम्पी या तेल मालिश आज भी कहीं हो रही हो यह गीत बरबस होठों पर आ ही जाता है। पूरी फिल्म में रफी साहब या गुरुदत्त के स्वर में तंग आ चुके हैं, रुदाद ए गम, ये हंसते हुए फूल, जब हम चले तो, गम इस कदर कौन आखिर जज्बा जैसे खूबसूरत शेर बिखरे पड़े हैं।

गुरुदत्त तनाव के सबसे सघन दृश्यों में मोंटाज शैली में नहीं लंबे टेक को अपनाते हैं। वह बहुत सब्जेक्टिव किस्म का सिनेमा रचते हुए भी वे दर्शक को दृश्य में डूबने देते हैं। उसे दृश्य की अपनी व्याख्या का स्पेस देते हैं। आज के सिनेमा में यह संभव ही नहीं है। फिल्म के अंतिम दृश्य में नायक का पुस्तकों से भरे एक विशाल कक्ष में आना जहां उसकी परछाई लगातार बड़ी होती जा रही है और फिर तेज हवा के साथ कमरे में किताबों के पन्नों का बिखर बिखर कर उड़ना यहाँ फिल्म अपने नरेशन में एक सघन कविता की तरह लगती है। इस तरह का फिल्मांकन आज की फिल्मों में देखने को नहीं मिलता।

नसरीन मुन्नी कबीर अपनी किताब कन्वर्सेशन विद वहीदा रहमान में लिखती हैं कि वहीदा रहमान ने उनको बताया कि नरगिस और मधुबाला दोनों प्यासा में काम करना चाहती थीं. लेकिन उनमें से कोई भी मीना का रोल नहीं करना चाहती थी. जो बाद में माला सिन्हा ने निभाया। माला सिन्हा, रहमान साहब और जॉनी वॉकर ने फिल्म में अपने अभिनय से जान डाली है। छोटे से रोल में महमूद भी न्याय करते नजर आते हैं।

रहमान तो शुरुआत से ही गुरुदत्त के मित्र रहे हैं।। जॉनी वॉकर भी गुरु दत्त की फिल्मों के एक जरूरी हिस्सा माने जाते रहे हैं। कुल मिलाकर प्यासा सेलुलाइड की एक बेहतरीन फिल्म है जो अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी है। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह पढ़ाई के तौर पर सिलेबस दर्ज़ हो गई है। जिस से आने वाला समय इससे सीखता रहेगा। अभी हाल ही में आई एक फिल्म चुप रिवेंज ऑफ द ऑर्टिस्ट जिसे आर बाल्की ने बनाया है। इसे एक तरह से बाल्की का सिनेमा के कालजयी फिल्मकार गुरुदत्त को ट्रिब्यूट भी कहा जा सकता है।

सिनेमा घर हमारी संवेदनाओ के रूपाकारों को गढ़ने वाली प्राथमिक पाठशालाएं होती है। हिंदी फिल्मों का जन्म ही आदर्श और यथार्थवाद की टकराहट के मेलोड्रामा से हुआ है। प्यासा ने नई तरह के नए समाज के जटिल संबंधों का क्रिटिक रचा है। मशहूर कला समीक्षक और इतिहासकार चिदानंद दासगुप्ता ने गुरुदत्त के बारे मे एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि हिंदी सिनेमा में कभी आवेग भरे रोमान का जिक्र होगा तो गुरुदत्त का नाम सबसे पहले याद किया जाएगा। प्यासा में एक शहर के भीतर एक आंतरिक शहर भी है। उभरती हुई शहरी दुनिया में मनुष्य के बेगानेपन की लगभग एक रहस्य की खोज यहाँ है।

पचास के दशक में मशहूर फिल्म सिद्धांतकार आंद्रे बजींग सिनेमा में तर्क और कविता के तत्वों के विलयन की दलील देते हुए उन फिल्मकारों के महत्व को रेखांकित कर रहे थे जो कला में रहस्य के तत्वों का सम्मान करते हैं। बजींग कहते हैं कि जब से फोटोग्राफी का जन्म हुआ है तब से उसके सामने यह चुनौती रही है कि कैसे वह इस भौतिक यथार्थ की मात्र यांत्रिक प्रतिकृति बन जाने से बचे और कला का दर्जा पा सके।

जिस फिल्म में कलाकार की अंतर्दृष्टि को शामिल करने का स्पेस है या जहां भी इस चिर परिचित यथार्थ के प्रति एक खास तरह का अधिभौतिक या स्प्रिचुअल रुझान रहा है कला वहां हमेशा एक उच्चतर अपरिभाषित अनुभव की ओर गई है।

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