दहशत का दूसरा नाम था ‘काला-पानी’ की सज़ा

इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल-जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं।
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काले पानी की सजा का मतलब ऐसी जगह से था जहां से बंदी जिंदा नहीं लौटता था

‘काला-पानी’ शब्द आज भी भारतीयों के ज़हन में आतंक का पर्याय बनकर अंकित है. ‘काले-पानी’ की सजा का मतलब ऐसी जगह से था जहां से बंदी जिंदा नहीं लौटता था. दरअसल अंडमान भेजने का ही अर्थ था काले पानी की सज़ा। काला-पानी की सजा एक तरह से देश निकाले के समान थी।

अंडमान दीप समूह हुगली नदी के मुहाने से 590 मील तथा म्यांमार के केप निगेरिस से 120 मील की दूरी पर बंगाल की खाड़ी में स्थित है। यह म्यांमार व सुमात्रा के बीच 219 मील की लंबाई में फैला हुआ है. अंडमान के दक्षिणी तट से 80 मील की दूरी पर निकोबार दीप समूह के 62 छोटे-बड़े दीप समूह स्थित हैं।

अंडमान दीप समूह लगभग पूरे वर्ष भारी बरसात की चपेट में रहता है. ईसा पूर्व काल में ही यूनान को इस दीप समूह की जानकारी थी. 9वीं सदी के अरब व्यापारियों को भी अंडमान के वजूद का पता था. अरबों के बाद मार्कोपोलो पहला पश्चिमी यात्री था. शताब्दी तक यह अफवाह उड़ी रही कि अंडमान नरभक्षी मानवों की भूमि है. 17वीं सदी के उत्तरार्ध में मराठों ने इस पर अधिकार कर लिया। 1729 ई. तक मराठी नौसेना अधिकारी कान्होजी आंग्रे अपने अड्डे के रूप में इस्तेमाल किया।

जेल के अंदर हैं 694 कोठरियां

लॉर्ड कॉर्नवालिस ने 1789 में आर्चीबाल्ड ब्लेयर नामक एक नौसेना अधिकारी को यह जानने के लिए भेजा कि यहाँ प्राकृतिक संसाधन ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए कितने उपयोगी थे तथा यहां के नरभक्षियों से सुरक्षा संभव थी या नहीं। 25 अक्टूबर 1789 को चैथम दीप पर ब्रिटिश पताका फहराकर उसे अपने कब्जे में ले लिया और उपनिवेशकों के दल ने अपने लिए बस्ती बनाने का काम शुरू कर दिया। इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल-जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं।

जेल के अंदर कोठरी का दृश्य
1857 के गदर के बाद इस जेल दोबारा ज़रूरत महसूस हुयी

सन 1792 तक यहां बस्ती बनाने का कार्य पूरा हो चुका तब उसका नामकरण पोर्टब्लेयर कर दिया गया. यहीं पर पहली बार 200 कैदियों को बुलाकर इसे एक डंडी बस्ती का रूप दे दिया गया. 1795 में भारी बरसात के कारण यहाँ का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया सर्जन सहित लगभग 50 उपनिवेश क्योंकि मृत्यु हो गई जिसका नतीजा यह रहा कि इस बस्ती को बंद करने का फैसला ले लिया गया. इस प्रकार 1796 से 1858 तक अंडमान में कोई बस्ती नहीं रही, लेकिन 1857 के गदर के बाद ब्रिटिश हुकूमत को इस दंडी बस्ती की जरूरत महसूस हुई.

1920 तक कैदियों की संख्या हुयी 12700

लगभग दो-तीन हजार की संख्या में विद्रोहियों का काले पानी की सजा हुई जिनमें उर्दू के मशहूर शायर गालिब के मित्र अल्लामा फजले हक उर्दू खैराबादी भी जिनकी मौत काले पानी सजा में हुई थी. मौलाना लियाकत अली नामक प्रसिद्ध विद्रोही नेता की मौत भी अंडमान बस्ती में हुई थी. 19वीं सदी के अंतिम दशकों में यूरोप सहित पूरी दुनिया में क्रांतिकारी आंदोलन शुरू हो चुके थे भारत भी इससे अछूता नहीं रहा. बीसवीं सदी तक जन-आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल गए. ब्रिटिश को अनुशासन बनाए रखना मुश्किल हो गया और काले पानी की सजा आम कर दी गई. इस डंडी बस्ती का प्रारंभ मात्र 200 कैदियों के निर्वासन से किया गया था लेकिन 1920 तक इसकी संख्या 12700 तक हो चुकी थी.

जेल पहुँचने तक लगते थे तीन दिन-तीन रात

अंडमान निर्वासित किए जाने वाले राजनैतिक बंदियों का पहला समूह अलीपुर षड्यंत्र मुकदमे के अभियुक्तों का ही था जिन्हें महाराजा नामक जलपोत से अंडमान भेजा गया था. इस पूरी यात्रा में उन्हें 3 दिन 3 रातें लगे थे. इस दौरान खाने के नाम पर उन्हें मात्र केवड़ा (टूटे हुए चावल से बना व्यंजन) दिया गया था. यात्रा के चौथे दिन प्रातः काल में पोर्ट ब्लेयर पहुंचे, जहां उन्हें तत्काल सेल्यूलर जेल भेज दिया गया. यहां पर सबसे पहले उनकी मुलाकात जेल के ओवरसियर से हुई। बेरी ने अपनी पहली मुलाकात में ही स्पष्ट कर दिया कि उन्हें उसके दमनकारी आतंक के साथ रहना पड़ेगा। उसके अनुसार जेल में वह शेरों को पालतू बनाने का काम करता था.

कोठरी के अंदर रहती थी भयंकर बदबू

सेल्यूलर जेल की कोठरियां वास्तविक अर्थों में कालकोठरियाँ थीं. इनका आकार मात्र इतना था, जिसमें एक मानव कैदी रह सकता था. इस कोठरी में कैदी के सोने के लिए एक पतला सा तख्त तथा पेशाब करने के लिए मिट्टी का एक बर्तन होता था. कोठरी के अंदर मच्छरों, खटमल और बिच्छू के साथ-साथ भयानक बदबू भी रहती थी.

कैदियों को पैरों में बेड़ियाँ डाल कर रखी जाती थीं

1908 के अलीपुर षड्यंत्र मुकदमे के 11 अभियुक्तों में तीन बारीन्द्र कुमार घोष, उपेंद्र नाथ बनर्जी, हेम चंद्र दास को आजीवन कैद, उल्लासकर दत्त, इंदु भूषण राय, विभूति भूषण सरकार तथा हृषिकेश कांजीलाल को 10 वर्ष की कैद तथा अविनाश चंद्र भट्टाचार्य, वीरेंद्र चंद सेन तथा निरपद राय को 7 साल की सजा मिली थी. इन कैदियों का दिन सुबह 6:00 बजे प्रारंभ होता था, जब इन्हें कोठरियों से बाहर निकाला जाता था. दैनिक वृत्तियों से निवृत होने के बाद इन्हें काम पर लगा दिया जाता था. इन कैदियों से लिए जाने वाले कामों में प्रमुख नारियल व सरसों का तेल निकालना, नारियल कूटकर उससे रेशे निकालना, नारियल के रेशों से सुतली, रस्सी तथा तौलिया बनाना, बागवानी करना, पहाड़ काटना तथा दलदल पाटना आदि शामिल था.

एक कविता लिखने की सज़ा मिली 21 वर्ष

अलीपुर षड्यंत्र मुकदमे के अभियुक्तों का निर्वासन किए जाने के बाद इलाहाबाद से प्रकाशित स्वराज के संपादकों होती लाल तथा बाबू हरिओम को भी निर्वासित कर दिया गया. स्वराज अकेला ऐसा पत्र है जिसके आठ उत्तरोत्तर संपादकों को निर्वासित काले पानी की सजा हुई. ब्रिटिश हुकूमत के लिए कितनी छोटी-छोटी राज बात राज विरोधी बातें देशद्रोह की श्रेणी में आ जाती थी यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि स्वराज की एक संपादक का ध्यान गुरदासपुर पंजाब के निवासी बाबू हरिराम को निम्नलिखित कविता रचना व प्रकाशित करने के लिए कुल 21 वर्ष की सजा दी गई थी.

ओ मेरी प्रिय मां 
रोती हो तुम क्यों
फिरंगियों का राज
होने वाला है खत्म
बांधने लगे हैं असबाब
नहीं रहेगा अब शेष
राष्ट्रीय शर्म व दुर्भाग्य
बहने लगी है आजादी की बयार
मांगने लगे हैं आजादी
बूढ़े व जवान
'हरि' भी लेगा मजा आजादी का
जब होगा भारत आज़ाद

बाबू हरिराम

1910 में नासिक षड्यंत्र मुकदमे के प्रमुख अभियुक्त गणेश दामोदर सावरकर तथा विनायक दामोदर सावरकर को भी अंडमान निर्वासित किया गया. सेल्यूलर जेल में राजनीतिक बंदियों के साथ चल रहे तमन्ना दमनात्मक व्यवहार के कारण अप्रैल 1912 में इंदु भूषण राय नामक एक बंगाली राजनैतिक बंदी ने सेल्यूलर जेल में आत्महत्या कर ली. इंदु भूषण राय को कोल्हू से तेल निकालने का कार्य दिया गया था. इसके कारण वह कई बार बीमार भी पड़ गया था. जेल अधिकारियों ने उसकी बीमारी को काम से बचने का बहाना माना तथा अनुशासनहीनता सजा के रूप में उसे एक कोठरी में बंद कर दिया। 29 अप्रैल 1912 को अपने कपड़ों को फाड़कर उसने रस्सी बनाई और कोठरी की खिड़की से लटक कर आत्महत्या कर ली.

सेलुलर जेल का विहंगम दृश्य
यातनाओं के कारण जेल में हुई ‘काम रोको’ हड़ताल

इसके तुरंत बाद पुष्कर दत्त जो एक राजनीतिक बंदी था, जेल की यातनाओं के कारण पागल हो गया. इस प्रकार के दमन के चलते राजनीतिक बंदियों ने भूख हड़ताल शुरू कर दी. ‘काम रोको’ हड़ताल के चलते कैदियों को कोठियों में बंद कर दिया गया. परिणाम स्वरूप तमाम कैदी बीमार पड़ गए. हकीकत जानने के लिए अक्टूबर 1913 में वायसराय के कार्यकारी परिषद के गृह सदस्य क्रैडाक ने अंडमान की यात्रा की. उसने कैदियों से बातचीत की और टिप्पणी लिखी।

सावरकर ने लिखी जेल से छूटने की दया याचिका

दो दिन बाद ही विनायक दामोदर सावरकर, हृषिकेश कांजीलाल, बारीन्द्र कुमार घोष, नंद गोपाल तथा सुधीर कुमार सरकार द्वारा पर क्रैडाक को याचिकाएं प्राप्त हुईं। सावरकर से अपनी बातचीत में बारे में क्रैडाक ने लिखा कि उसके अनुसार ”उसने अपने विचार बदल लिए हैं. उसके विचार से उसके प्रति दया दिखाने से वह भी शांत हो जाएंगे, जो अभी ब्रिटिश शासन के प्रति षड्यंत्र हैं तथा वह देसी समाचार पत्रों को एक खुला पत्र लिखकर अपने बदले हुए विचारों का स्पष्टीकरण भी करना चाहता है.”

वीरेंद्र कुमार घोष ने अपनी याचिका में लिखा था मैं व्यक्तिगत रूप से वही करूंगा जैसा महामहिम की इच्छा होगी। सभी प्रकार के आंदोलन से अलग रहूंगा और छोटी से छोटी इच्छा का पालन करूंगा। विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी याचिका में लिखा था कि मैं जिस प्रकार सरकार चाहे उसकी सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि मेरा परिवर्तन अंतःकरण से प्रेरित है. अतः मेरा मानना है कि मेरी मेरा भावी व्यवहार भी वैसा ही होना चाहिए। मुझे छोड़ देने की तुलना के बदले जेल में रखकर कुछ भी नहीं मिल सकता है. केवल शक्तिशाली ही दयावान हो सकता है तथा इसलिए सरकार के पैतृक दरवाजे को छोड़कर एक अपव्ययी पुत्र और कहां लौटेगा। इस विश्वास के साथ कि माननीय महोदय इन बिंदुओं पर सहृदयपूर्वक विचार करेंगे।”

निर्वासित कैदियों से कोल्हू के ज़रिए तेल निकलवाया जाता था
1919 को बंदियों को रिहा करने की घोषणा कर दी गयी

क्रैडाक की यात्रा रंग लाई और भारत सरकार अधिनियम ने 1919 के अंडमान के राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की घोषणा कर दी. उसे घोषणा के अनुसार सभी राजनीतिक बंदियों को इस शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करना था कि वे एक निश्चित अवधि तक राजनीतिक व क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे। प्रारंभ में इस हस्ताक्षर को लेकर अत्यंत विवाद रहा, परंतु बाद में सावरकर के समझाने से अधिकांश राजनीतिक बंदियों ने इस पर हस्ताक्षर करना स्वीकार कर लिया।

कैदियों में डर पैदा करने के लिए मैदान में लाकर कोड़े लगाए जाते थे।
और फिर हमेशा के लिए बंद कर दी गयी काले पानी की सज़ा

31 दिसंबर 1937 तक कुल 191 राजनैतिक बंदियों को वापस भेजा जा चुका था. बंगाल के शेष 109 राजनैतिक बंदियों को 18 जनवरी 1938 को सेलुलर जेल से वापस भेज दिया। इसके बाद किसी भी राजनीतिक बंदी को अंडमान निर्वासित नहीं किया गया. भारत सरकार के अनुसार 1942 में अंडमान की कुल जनसंख्या 20000 से अधिक हो चुकी थी। इसमें 200 स्थानीय कबीलाई निवासी, 6000 स्वंसेवी बंदी तथा 15000 स्वतंत्र निवासी थे।

15 अगस्त 1947 को लंदन से नई दिल्ली सत्ता हस्तांतरण के साथ ही इस दंडी बस्ती को हमेशा के लिए स्वतंत्र कर दिया गया. इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन के समापन के साथ ही ‘काले पानी की सज़ा’ का विचार भी इतिहास का एकमात्र अशोभनीय तथ्य बनकर रह गया.

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