गुलज़ार एक सहेली है जिससे सारी बातें कर लेनी हैं


LIMELIGHT MEDIA: गुलज़ार यानी एक कैफ़ियत, तारी सी हो जाती है पूरे वजूद पर। रूमानी एहसासों के तले मद्धम-मद्धम चलते कब एक आस्ताने से टिक के हम अपने दिल की सारी रुबाइयों से रूबरू होने लगते हैं पता ही नहीं चलता। वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है किसकी जिंदगी में नहीं होता, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने कौन प्रेमी नहीं कहता, कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों कौन नहीं सोचता, तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं किस के दिल में नहीं कसकता, दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन किसके दिमाग में नहीं बजता, थोड़ा है थोड़े की जरूरत है कौन नहीं चाहता, तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी हैरान हूँ मैं कौन नहीं जानता और ये सब फ़ॉलोसिफिकल लिखते लिखते गुलज़ार जब लिखते हैं कि बीड़ी जलियले जिगर से पिया या दिल तो बच्चा है जी या चप्पा चप्पा चरखा चले या फिर मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, तो गुलज़ार हैरान भी कर देते हैं।

अब बताइये एक सौ सोलह चाँद की रातें और तुम्हारे कांधे का तिल या दिन खाली खाली बर्तन है और रात है जैसे अंधा कुआँ या इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते, जिंदगी मेरे घर आना। ये सब लिखा हुआ कोई लिख सकता है, सोच सकता है। यही गुलज़ार हैं। उन जैसा कोई नहीं हो सकता। वो अपने लिखे से दिल में तो उतरते ही हैं. हमारी आँखे भी फटी रह जाती हैं कि ये क्या और कैसे लिख दिया। क्या लफ्ज़ों की तरतिबियत ऐसे भी हो सकती है।

गुलज़ार हमारे मनों के भीतर पसरी एक एहसास की अँगड़ाई सीहैं. गुलज़ार हमारे बुदबुदाते लब हैं. गुलज़ार मन के अंदर की कसक हैं. गुलज़ार आँख की कोर पर टिका एक आँसू है. गुलज़ार एक सहेली है जिससे सारी बातें कर लेनी हैं. गुलज़ार दिल की एक आवाज़ हैं जिसे हम हमेशा सुनना चाहते हैं. गुलज़ार गले में उतरती शराब सी चीज़ है कि एक आश्वस्ति सी मिल जाती है. गुलज़ार होंठो के किनारों पर फंसी एक झीनी सी मुस्कराहट है जिसे पूरा फैलने नहीं देते.

गुलज़ार दिल, रूह, दिमाग और दिन को गुलज़ार करने वाली एक ऐसी शख्सियत है जिसके दौर में हम हैं। जिसको हम देख पा रहे हैं, सुन पा रहे हैं, छू पा रहे हैं, महसूस कर पा रहे हैं, उसके धड़कते सीने की रवानगी को समझ पा रहे हैं। इन सबके बरअक्स गुलज़ार की शायरी भी हमारे दौर की दास्तान है। खुली किताब के सफ़हे उलटते रहते हैं, हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं या कोई अटका हुआ है पल शायद, वक़्त में पड़ गया है बल शायद या फिर दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई, जैसे एहसान उतारता है कोई, या ऐसे, आईना देख कर तसल्ली हुई, हम को इस घर में जानता है कोई।

गुलज़ार का उनके तरीके से कोई सानी नहीं। वो दरख़्त की शाखों पर लम्हें टिका देते हैं, आग की लपटों को चिमटे से मारते हैं, पड़ोसी के चूल्हे से आग ले लेते हैं, जय हो लिख देते हैं। गुलज़ार साहब आपको आपके नायाब लेखन की बहुत बहुत मुबारकबाद।आप हमारे दौर में हैं ये आपका हम सब पर एहसान है या हमारी ख़ुशनसीबी।

वो जो शाएर था, चुप सा रहता था 

बहकी बहकी सी बातें करता था 

आँखें कानों पे रख के सुनता था 

गूँगी ख़ामोशियों की आवाज़ें! 

जम्अ करता था चाँद के साए 

गीली गीली सी नूर की बूँदें 

ओक में भर के खड़खड़ाता था 

रूखे रूखे से रात के पत्ते 

वक़्त के इस घनेरे जंगल में 

कच्चे पक्के से लम्हे चुनता था 

हाँ, वही, वो अजीब सा शाएर 

रात को उठ के कुहनियों के बल 

चाँद की ठोड़ी चूमा करता है!! 

चाँद से गिर के मर गया है वो 

लोग कहते हैं ख़ुद-कुशी की है 

स्रोत :
पुस्तक : Chand Pukhraj Ka (पृष्ठ 40) रचनाकार : Gulzar प्रकाशन : Roopa And Company (1995) संस्करण : 1995
  • डॉ राजेश शर्मा
ias Coaching , UPSC Coaching