संमोहक शास्त्रीय संगीत में गुँथी फ़िल्म बैजू बावरा

baiju bawra

सिनेमाघरों में 100 सप्ताह तक शानदार किया था प्रदर्शन

BOLLYWOOD LIMELIGHT: 16वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के जमाने में पंडित बैजनाथ का जन्म सन 1542 में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई बचपन से ही प्रभावशाली थी। इनको लोग बचपन से ही बैजू कहकर पुकारते थे। उम्र के साथ-साथ बैजू के गायन और संगीत में निखार आने लगा। युवा बैजू को कलावती नाम की स्त्री से प्रेम हो गया था। कलावती बैजू की प्रेरणा स्रोत भी रही है।

संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी इस प्रेयसी के लिए भी पागल हो उठे थे. इसलिए लोग इन्हें बैजू बावरा भी कहने लगे।कहते हैं कि बैजू ने ध्रुपद शैली में गायन की दीक्षा महान संगीतकार और कृष्ण भगवान के परम भक्त गुरु हरिदास से वृंदावन में ग्रहण की थी। ग्वालियर के जयविलास महल में संरक्षित ऐतिहासिक पुस्तकों के अनुसार बैजू राग दीपक गाकर तेल का दीप जला सकते थे, राग मेघ मल्हार या गौड़ मल्हार गाकर वर्षा करा सकते थे, रात बहार गाकर फूल खिला सकते थे और यहां तक कि राग मालकौंस गाकर पत्थर तक को पिला सकते थे।

बैजू बावरा मूवी के एक दृश्य में भारत भूषण व मीना कुमारी

बैजू बावरा फिल्म में कहानी इस प्रकार है कि संगीतकार तानसेन जब अपना रियाज़ कर रहे होते हैं तो उनको अपने महल के पास किसी भी प्रकार का कोई शोर-शराबा नहीं चाहिए, तो उन्होंने आदेश दे रखा है कि कोई भी उनके महल के पास नहीं गायेगा. यदि कोई व्यक्ति गाता है तो उस व्यक्ति को तानसेन से गायन में अपना मुकाबला करना होगा और कोई भी यदि हार जाता है तो उसको मृत्यु दंड दिया जाएगा।

एक दिन तानसेन के रियाज़ के समय एक भक्त मंडली उनके महल के पास से गुजरती है. वह भगवान का भजन गा रहे हैं। उसमें एक ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ है यह पुत्र बैजू ही है। बैजू भी अपने पिता के साथ भजन गा रहा है। उस वक्त तानसेन के सैनिक उनको भजन गाने से रोकते हैं. तब वह ब्राह्मण कहते हैं कि यह तो भगवान का भजन है यह तो कहीं भी किसी भी समय गाया जा सकता है, लेकिन क्योंकि तानसेन के आदेश का पालन नहीं हुआ. तब तानसेन के सिपाही उस ब्राह्मण पर प्रहार करते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है।

मरणासन्न ब्राह्मण अपने पुत्र बैजू से इस बात को हमेशा के लिए याद रखने को कहता है और कहता है कि बदला लेना। बैजू को एक अन्य ब्राह्मण अपने गांव ले जाता है वहां पर बैजू अपनी संगीत साधना में लग जाता है। बचपन में अपनी एक मित्र जिसका नाम फिल्म में गौरी बताया गया है के साथ बाद में बैजू को प्रेम हो जाता है और गौरी बैजू की प्रेरणा स्त्रोत भी है। फ़िल्म धीरे धीरे चलती है और फ़िल्म की हर सिचुएशन पर बहुत ही भावप्रवण संगीत व गीत हैं।

फिल्म में एक कहानी और भी डाली गई है कि अकबर द्वारा विस्थापित एक राजा की बेटी जो अब दस्यु सुंदरी है वह गांव में डाका डालने आती है लेकिन वह बैजू का मधुर संगीत सुनकर उसे अपने साथ ले जाती है। वहां बैजू को अपने बदले की भावना याद आती है और वह तानसेन को मारने जाता है। जब वह तलवार लेकर तानसेन की गर्दन पर वार करने को होता है तब तानसेन अपना अलाप ले रहे होते हैं और राग रागिनीयाँ उनके चारों तरफ नाच रही होती हैं। इस पूरे वातावरण से बैजू मंत्रमुग्ध हो जाता है और जब होश में आता है तब वह अपना प्रहार तानसेन की गर्दन पर न कर उसके तंबूरे पर करता है। तब उसे यह एहसास होता है कि यदि तानसेन को मारना है तो उसको संगीत से हराकर ही उसे मारना होगा। तब वह गुरु हरिदास की शरण में जाता है और उनसे संगीत साधना की बात करता है।

गुरु हरिदास उसको बदले की भावना को भूल जाने को कहते हैं और कहते हैं कि आग आग से नहीं बुझती इसी तरह बैर बैर से नहीं प्रेम से ही मिलता है। बैजू संगीत साधना करने लगता है लेकिन उसको यह एहसास होता है कि उसके संगीत में जब तक एक व्याकुलता नहीं आएगी तब तक वह पूर्ण नहीं होगा। गौरी को भी पता है जब बैजू को प्रेम का आघात मिलेगा तभी उसके भीतर व्याकुलता जागेगी। प्रेम के व्याकुल स्वर ही संगीत में जादू पैदा कर सकते हैं।

गौरी अपना बलिदान देती है और गौरी को मरणासन्न देखकर बैजू बावरा हो जाता है। बावरा हुआ बैजू अब अपने बदले को भी भूल जाता है लेकिन उसे उसके आसपास के लोग उकसाते हैं और अंत में उसका मुकाबला तानसेन से होता है।फ़िल्म में इस मुकाबले में शुद्ध शास्त्रीय संगीत की जुगलबंदी बहुत ही खूबसूरत और मधुर है। कहा तो यह जाता है कि बैजू बावरा तानसेन से मुकाबले में हार गया था लेकिन अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फजल और औरंगजेब के दरबार के इतिहासकार फ़कीउल्लाह के अनुसार बैजू ने तानसेन को प्रतियोगिता में हराया था और तानसेन ने बैजू के पैर छूकर अपने प्राणों की भीख मांगी थी। बैजू ने तानसेन को माफ कर दिया था और खुद ग्वालियर चला आया था।

फिल्म में बैजू और गौरी का मिलन भी नहीं दिखाया है। वह फिल्म में नहीं मिल पाते हैं और जमुना में आई बाढ़ में डूब कर मर जाते हैं।दोनों का मिलन जमुना की तेज धारा में होता है और गौरी के श्रृंगार के फूल ही समाप्ति की घोषणा करते हैं। वैसे बैजू बावरा एक किवदंती के रूप में है लेकिन चंदेरी में बैजू बावरा की समाधि आज भी है। बैजू बावरा की मृत्यु बसंत पंचमी के दिन हुई थी और हर वर्ष चंदेरी में बैजू बावरा की समाधि पर शास्त्रीय संगीत की का सम्मेलन भी होता है।

इसी कहानी पर 1952 में बैजू बावरा फिल्म प्रदर्शित हुई हालांकि फिल्म की कहानी और बैजू बावरा पर प्रचलित दंत कथाओं में काफी समानता है। फिल्म का निर्देशन किया है विजय भट्ट ने। भारत भूषण, मीना कुमारी फिल्म के मुख्य कलाकार है। हरीश चंद्र ठाकुर की कहानी पर आर एस चौधरी ने पटकथा को लिखा और जिया सरहदी ने इस फिल्म के संवाद लिखे हैं। प्रकाश पिक्चर्स द्वारा निर्मित बैजू बावरा अपने समय का एक संगीत में मेगा हिट रहा था जिसने सिनेमाघरों में 100 सप्ताह तक शानदार प्रदर्शन किया।

शास्त्रीय संगीत पर आधारित फिल्म बनाने के विजय भट्ट के निर्णय को भारतीय फिल्म उद्योग द्वारा अपील की कमी के कारण के कारण संदेह के साथ मिला लेकिन फिल्म और संगीत एक जबरदस्त सफलता साबित हुए हैं। यह फिल्म व्यावसायिक और आलोचनात्मक दोनों तरह से सफल रही थी। इस फिल्म ने इसके दोनों प्रमुख कलाकारों भारत भूषण और मीना कुमारी को स्टारडम में पहुंचा दिया था।

मीना कुमारी (1954) में पहली बार फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की विजेता बनी थी जो उनके कैरियर में जीती गई चार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की पहली ट्रॉफी थी। नौशाद को भी बैजू बावरा के लिए पहला और उनका एकमात्र फिल्म फेयर पुरस्कार इसी से मिला।फ़िल्म के संगीत ने तो जैसे जनमानस पर जादू कर दिया था। फिल्म के संगीत निर्देशक नौशाद हैं जो रतन, अनमोल घड़ी, शाहजहां और दीदार जैसी फिल्मों में लोक आधारित संगीत देकर लोकप्रिय हो गए थे।

बैजू बावरा के साथ नौशाद ने हिंदी फिल्म गीतों में एक शास्त्रीय घटक पेश किया। फिल्म का साउंड ट्रैक पूर्णिया, धनश्री, तोड़ी, मालकौंस, दरबारी और देसी जैसे शास्त्रीय रागों पर आधारित था। बैजू बावरा में तानसेन के पक्के गायन के लिए उस्ताद अमीर खान और बैजू के गायन के लिए पंडित डीवी पलुस्कर को नौशाद साहब ने चुना था। शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान और अभिनव सितार वादक उस्ताद अली जफर खान का संगीत इस फिल्म में अभूतपूर्व रूप से इस फिल्म में विद्यमान है।

विजय भट्ट ने इससे पहले भरत मिलाप (1942) और रामराज्य (1945) जैसी धार्मिक क्लासिक ने बनाई थी। जिसमें रामराज्य एकमात्र ऐसी फिल्म थी जिसे महात्मा गांधी ने देखा था। साहित्य और संगीत में रुचि के कारण उन्हें तानसेन और लोक किंवदंती के गायक बैजू बावरा पर मुख्य फोकस के रूप में बनाने को प्रेरित किया।

एक प्रेम कहानी और कुछ कॉमिक इंटरल्यूड्स के साथ एक रिवेंज थीम लाई गई। फिल्म के गीतकार शकील बदायूनी जो नौशाद साहब की ही खोज थे ने इस फिल्म में बहुत ही खूबसूरत गीत लिखे। बैजू बावरा के लिए उन्हें उर्दू को छोड़कर शुद्ध हिंदी में गीतों की रचना करनी पड़ी। भजन जैसे गीतों के साथ शुद्ध हिंदी में गीत लिखने पड़े। मन तडपत हरी दर्शन को आज जो बहुत लोकप्रिय हुआ था। तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा जिसके लिए नौशाद साहब को फिल्म फेयर मिला। इस सीक्वेंस को मुंबई के पास दसिहर में एक नदी ने शूट किया गया था। बाकी फिल्म मुंबई के अंधेरी ईस्ट में प्रकाश पिक्चर स्टूडियो में पूरी की गई थी।

सेट पर काम करने वाले किसी भी व्यक्ति को फ़िल्म बनाते समय कभी ऐसा नहीं लगा था कि वे एक ऐसी फिल्म पर काम कर रहे हैं जो भारतीय सिनेमा में एक मील के पत्थर के रूप में साबित होगी। फिल्म को पूरा होने में एक साल लगा था। फिल्म के किरदारों, कलाकारों के लिए पहले बैजू के रूप में दिलीप कुमार और गौरी के रूप में नरगिस को पसंद किया गया था।

वित्तीय विचार-विमर्श और कलाकारों की तारीखों के चलते बाद में विजय भट्ट ने भारत भूषण और मीना कुमारी को फ़िल्म में लिया। मीना कुमारी ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत चार साल की उम्र में विजय भट्ट की फिल्म लेदरफेस (1939) से ही की थी। 1940 में भट्ट ने उनका नाम बदलकर बेबी मीना कर दिया था। भट्ट की ही एक फिल्म एक ही भूल में मीना कुमारी बाल कलाकार के रूप में थी। मीना की पहली वयस्क फिल्म राजा नैने द्वारा निर्देशित बच्चों का खेल (1946) थी।

भारत भूषण ने अपने कैरियर की शुरुआत कलकत्ता में बनी केदार शर्मा की फ़िल्म चित्रलेखा (1941) से की थी। उनका कैरियर 1950 के दशक में दिलीप कुमार के समानांतर चला। भारत भूषण एक सम्वेदनशील पीड़ित कवि संगीतकार के रूप में बिल्कुल फिट थे। उनकी भूमिका के लिए आवश्यक करुणा को आलोचकों और दर्शकों द्वारा काफी सराहा गया। अगले बरस फिर भारत भूषण ने श्री चैतन्य महाप्रभु में काम किया था जिसके लिए भूषण को फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था।

1930 और 1940 के दशक में लोकप्रिय प्रमुख अभिनेता सुरेंद्र 1950 के दशक में चरित्र भूमिकाओं की तरफ रुख कर लिया था।बैजू बावरा में तानसेन का किरदार उनके लिए कैरियर को पुनर्जीवित करने वाली भूमिका थी। फिल्म में तानसेन और बैजू के बीच गायन की जुगलबंदी का दृश्य इन दोनों अभिनेताओं के अभिनय का चरम है। शास्त्रीय संगीत में जब चगुन की तत्कारे आती हैं तब शास्त्रीय उस्ताद के गायन के साथ साथ लिप सिंक करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। सुरेंद्र ने बैजू बावरा, रानी रूपमती (1957) और मुगले आज़म (1960) तीनों फिल्मों में तानसेन की भूमिका निभाई है।

कुलदीप कौर को उनके नकारात्मक किरदारों के लिए जाना जाता है। उन्हें भारतीय सिनेमा की सबसे पॉलिश्ड वैम्प कहा जाता है।बैजू बावरा में उनके किरदार रानी के भी समीक्षकों द्वारा प्रशंसा मिली। भट्ट शास्त्रीय संगीत में अपनी विशेषज्ञता के कारण नौशाद को संगीतकार के रूप में लाये।भट्ट के बड़े भाई शंकर के साथ नोशाद ने छह महीने काम किया।

शंकर रागों से भरी हिंदी फिल्म को बनाने के विरोध में थे। उन्हें डर था कि कहीं शास्त्रीय राग भारतीय जनमानस को ज्यादा पसंद न आए लेकिन नौशाद ने शुद्ध शास्त्रीय संगीत को सार्वजनिक रुचि से जोड़ दिया। राग दरबारी पर आधारित प्रसिद्ध गीत ओ दुनिया के रखवाले मोहम्मद रफी की आवाज में आज भी बेहद लोकप्रिय है। रानी कलिगंदा के निशान के साथ राग भैरव में लता मंगेशकर की प्रस्तुति मोहे भूल गए सांवरिया हिंदी फिल्म संगीत का एक बेजोड़ नमूना है। मन तडपत हरी दर्शन को आज राग मालकौंस में मोहम्मद रफी का गाया भक्ति संगीत का एक बेहतरीन तराशा हीरा है।

दूर कोई गाए धुन ये सुनाए राग देश में लता मंगेशकर शमशाद बेगम और मोहम्मद रफी का गाया सुनने के बाद जैसे इसका संगीत कानों में झनझनाता रहता है। तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा राग भैरवी ने मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर की गायकी का बेजोड़ नमूना है। जिसे फिल्मफेयर भी मिला। लता मंगेशकर का ही गाया राग मांड पर आधारित गीत बचपन की मोहब्बत जैसे एक पुकार बनकर रह गया है।

आज गावत मन मेरो झूम के गाता तो बैजू है लेकिन महसूस होता है कि कोई उसके भीतर से गा रहा है। उस भीतर के ही संगीत से संगमरमर पिघल जाता है। शास्त्रीय संगीत में तोरी जय-जय करतार राग पुनिया धनश्री में, उस्ताद अमीर खान साहब का लंगर काकरिया जी ना मारो तोड़ी में, उस्ताद अमीर खां और डीवी पलुस्कर का घनन घनन घन गरजे राग मेघ में उस्ताद अमीर खां को और अमीर खान साहब की ही सरगम राग दरबारी तो इस फिल्म की जैसे आत्मा बन पड़े हैं। शकील बदायूँनी ने बैजू बावरा के गीत शास्त्रीय संगीत की राग रागनियों और परिवेश व पात्र के अनुरूप अपने शब्दों को गीतों में डाल कर लिखे हैं। इसके लिए उन्होंने लोक धुनों, लोकगीतों और राग रागनियों को अपने भीतर जज्ब किया है।

नौशाद के संगीत और शकील के बोल ने मिलकर ऐसा जादू किया रखा है जो आज सारा जमाना इश्क जादू में बंध गया। फिल्म में घसीट ख़ाँ के माध्यम से शास्त्रीय संगीत में विफल प्रतिभाओं की अकड़ और वैमनस्य के को भी भट्ट साहब ने बड़े सलीके से चित्रित किया है। वही आगे चलकर बैजू जैसे गायक का अपने आप उस्ताद बन बैठता है और तानसेन से भी भिड़ाने में पूरा सहयोग देता है। समाज में कला के क्षेत्र में इस तरह के लोग बिखरे पड़े हैं।

यह उस समय भी था और आज तो हालात बहुत ही खराब हैं। बैजू बावरा को रिलीज़ हुए साठ साल से अधिक हो चुके हैं और इसके राइट्स अब लैप्स हो चुके हैं। 2010 में एक फिल्म बैजू द जिप्सी के निर्माण की घोषणा हुई थी। इसे अमेरिकी भारतीय लेखक कृष्णा शाह द्वारा लिखा और निर्देशित किया जाना था। इस फ़िल्म से आमिर खान और एआर रहमान जैसे नाम भी जुड़े हुए थे। लेकिन बाद में इसका जिक्र होना बंद हो गया। फरवरी 2019 में संजय लीला भंसाली बैजू बावरा की रीमेक की योजना बना रहे थे। 2023 से इसकी शूटिंग की योजना थी। लेकिन लग रहा है कि ये रीमेक अभी भी ठंडे बस्ते में ही है।

  • डॉ राजेश शर्मा
ias Coaching , UPSC Coaching