नसीम बानो जिन्हें फिल्मों की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया

हिंदी सिनेमा में किसी हीरोइन के नाम पर फ़िल्में देखने का चलन शुरू हुआ तो वह 'नसीम बानो' ही थीं।
नसीम बानो

पुण्यतिथि विशेष: सायरा बानो की माँ थीं अपने वक़्त की सुपरस्टार अदाकारा

LIMELIGHT MEDIA : भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर की महिला सुपर स्टार अभिनेत्रियों की जब भी चर्चा होती है, तो सबसे पहले या तो देविका रानी का नाम आता है या फिर विदेशी मूल की रूबी मायर्स (सुलोचना) का. लेकिन अगर आपने ‘नसीम बानो’ के बारे में नहीं सुना तो फिर आपने उस दौर की एक ऐसी खूबसूरत अभिनेत्री को मिस कर दिया जो स्कूल भी जाती थीं तो पालकी में बैठकर. हिंदी सिनेमा में किसी हीरोइन के नाम पर फ़िल्में देखने का चलन शुरू हुआ तो वह ‘नसीम बानो’ ही थीं। उन्हें हिंदी सिनेमा का पहला ‘फीमेल सुपरस्टार’ भी कहा जा सकता है। ये मशहूर अदाकारा ‘सायरा बानो’ की माँ थीं और हिंदी सिनेमा के दिग्गज़ कलाकार ‘दिलीप कुमार’ की सासु माँ थीं। आज इनकी पुण्यतिथि (18 जून 2002) पर इन्हें ख़िराज ए अक़ीदत …

मां चाहती थीं कि नसीम पढ़-लिख कर डॉक्टर बनें

4 जुलाई 1916 को दिल्ली के एक रईस परिवार में जन्मी ‘नसीम बानो’ का नाम पहले ‘रोशन आरा बेग़म’ था। इनके पिता हसनपुर के नवाब ‘अब्दुल वहीद ख़ान’ थे। इनकी माँ का नाम था ‘शमशाद बेग़म’ (फ़िल्मी गायिका शमशाद बेग़म नहीं) जिन्हें छमिया बाई के नाम से भी जाना जाता था। वो भी पेशेवर गायिका थीं। उनकी माँ की चाहत थी कि उनकी बेटी पढ़ लिख कर डॉक्टर बनें। लेकिन उनके फ़िल्मों के शौक ने उन्हें माँ से बगावत करने पर मजबूर कर दिया। एक बार मुंबई की यात्रा के दौरान नसीम एक फ़िल्म की शूटिंग देखने गईं। जहां उनकी मुलाकात सोहराब मोदी से हुई, सोहराब मोदी ने नसीम की खूबसूरती को देखते हुए उन्हें अपनी फ़िल्म में काम करने का ऑफर दिया, लेकिन माँ नहीं चाहती थीं कि नसीम फ़िल्मों में काम करे। लेकिन नसीम बानो को तो फ़िल्मों में ही काम करना था। वो रूबी मायर्स की भी बहुत बड़ी फैन थीं। वह ज़िद्द पर अड़ गईं। अंततः उनकी माँ को अपनी बेटी की ज़िद्द के आगे झुकना पड़ा।

फिल्में करने की वज़ह से स्कूल से निकाल दिया गया

उन दिनों नसीम बानो दिल्ली के क्वीन मैरी स्कूल में पढ़ाई भी कर रही थीं। उन दिनों फ़िल्मों में काम करना निम्न स्तर का पेशा माना जाता था जिसकी वजह से उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और उनकी पढाई अधूरी रह गई। फिर वो मुंबई आ गईं और उन्होंने फ़िल्मों में अपने करियर की शुरुआत साल 1935 में सोहराब मोदी की फिल्म ‘खून का खून’ (हैमलेट) से की। इस फ़िल्म में काम देने से पहले सोहराब मोदी ने नसीम बानो के साथ अनुबंध किया कि वह उन्हीं के बैनर ‘मिनर्वा मूवीटोन’ की ही फ़िल्में करेंगी।

सोहराब मोदी की बनाई फ़िल्मों ‘खान बहादुर’, ‘मीठा जहर’, ‘तलाक़’, ‘वासंती’ और ‘पुकार’ इत्यादि फ़िल्में करने के बाद नसीम की खूब चर्चा होने लगी और दूसरे निर्माता भी उन्हें फ़िल्में ऑफर करने लगे, लेकिन सोहराब मोदी के साथ अनुबंध में रहने की वजह से वह बाहर की फ़िल्में नहीं कर पा रही थीं। इस कारण उनकी सोहराब मोदी से अनबन शुरू हो गई। अंततः फ़िल्म ‘शीश महल‘ करने के बाद उन्होंने सोहराब मोदी से दूरी बना ली। इसके पहले ही वो फिल्मिस्तान स्टूडियो की फ़िल्म ‘चल चल रे नौजवान‘ जो अशोक कुमार के साथ थी, साइन कर चुकी थीं।

अपने बचपन के दोस्त मियां एहसान उल हक़ से शादी की

नसीम बानो ने अपने बचपन के दोस्त मियां एहसान उल हक़ से शादी की, जोकि एक वास्तुकार थे। साथ ही उन्होंने सन 1942 में ‘ताज महल पिक्चर्स’ के नाम से अपने प्रोडक्शन कंपनी की शुरुआत की। जिसके तहत पहली फ़िल्म ‘बेगम’ (1944) रिलीज़ हुई। उसके बाद इस बैनर के तले उन्होंने ‘मुलाकात’, ‘चांदनी रात’ और ‘अजीब लड़की’ इत्यादि फ़िल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान इन्होंने कुछ एक्शन व फैंटेसी फ़िल्मों का निर्माण किया। जिनमें ‘सिंदबाद जहाज़ी’ (1952) और ‘बागी’ (1953) जैसी फ़िल्में थीं। जिसका निर्देशन इनके पति ‘एहसान’ ने ही किया था। लेकिन ये फ़िल्में चली नहीं। तभी देश में अंग्रेजों के खिलाफ चल रही आजादी की लड़ाई भी जोर पकड़ने लगी थी।

बेटी सायरा बानो और दामाद दिलीप कुमार के साथ नसीम बानो

मुल्क़ के बंटबारे में नसीम बानो के पति पाकिस्तान चले गए

भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद नसीम बानो के पति एहसान पाकिस्तान चले गए। वह चाहते थे कि नसीम बानो भी उनके साथ पाकिस्तान चलें लेकिन नसीम बानो ने पाकिस्तान न जाकर अपने देश भारत में रहने का फैसला किया और अपनी बेटी सायरा बानो और बेटे सुल्तान अहमद (फ़िल्म निर्देशक सुल्तान अहमद नहीं) के साथ हिंदुस्तान में ही रहीं। पाकिस्तान जाने के बाद नसीम बानो के पति फिर कभी वापस हिंदुस्तान नहीं आए। नसीम बेगम ने ही अकेले अपने दोनों बच्चों की परवरिश की और बाद में दोनों बच्चों के साथ लंदन शिफ्ट हो गईं। लेकिन वहां पर सायरा बानो के बीमार पड़ने पर पहले ब्लड कैंसर के लक्षण बताए गए, जिससे वो पूरी तरह टूट गईं। लेकिन बाद में पता चला कि ब्लड कैंसर जैसी कोई बात नहीं है और इलाज से ठीक होने के बाद वह सायरा और बेटे को लेकर फिर बंबई वापस आ गईं।

सायरा बानो ने भी फिल्मों से शुरू किया अपना कैरियर

बंबई वापस आने के बाद मिनर्वा मूवीटोन की फ़िल्म नौशेरवां ए दिल (1957) में एक छोटा सा रोल और एक पंजाबी फ़िल्म चढ़ियां दी डोली (1966) करने के बाद फ़िल्में छोड़ दीं। तब तक सायरा बानो भी फ़िल्म जंगली (1961) से अपनी फ़िल्मी पारी शुरू कर चुकी थीं। तब उन्होंने सायरा बानो के ड्रेस डिज़ाइनर का जिम्मा सम्हाला। सायरा के राजेंद्र कुमार के साथ काम करने के दौरान राजेन्द्र कुमार के साथ उसके संबंधों के खूब चर्चे होने लगे। नसीम बानो नहीं चाहती थी कि सायरा का नाम ऐसे व्यक्ति के साथ जुड़े जो तीन बच्चों का पिता हो। बाद में सायरा ने अपने से 22 साल बड़े दिलीप कुमार से 11 अक्टूबर 1966 में शादी कर ली।

आखिरी वक़्त में नसीम अपनी बेटी सायरा बानो की ड्रेस डिज़ाइनर बन गयीं

नसीम बानो की कुछ बेहतरीन फ़िल्में रहीं ‘पुकार’ (1939), ‘चल चल रे नौजवान’ (1944), ‘अनोखी अदा’ (1948), ‘शीश महल’ (1950) और ‘शबिस्तान’ (1951)। उन्होंने उन दिनों के अधिकांश शीर्ष सितारों जैसे सोहराब मोदी, चंद्र मोहन, पृथ्वीराज कपूर, अशोक कुमार, श्याम, सुरेंद्र, नवीन याग्निक, प्रेम अदीब और रहमान के साथ अभिनय किया। एक घटना शबिस्तान (1951) की शूटिंग के दौरान थी कि प्रसिद्ध अभिनेता श्याम घोड़े से गिर गए थे और उनकी मृत्यु हो गई थी। अपने आखरी समय में अपनी बेटी की ड्रेस डिजाइनिंग का काम देखते हुए 18 जून 2002 को 85 वर्ष की आयु में उन्होंने आखिरी सांस ली।

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