भारतीय कृषक समाज की एक कालजयी रचना : मदर इंडिया

mother india

बदलते भारत में किसान की बदहाली को ‘मदर इंडिया‘ ने पूरे समाज और राजनेताओं को चेताने की कोशिश थी


BOLLYWOOD LIMELIGHT: प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक महबूब खान ने 1940 में एक फिल्म बनाई थी औरत। इसमें सरदार अख्तर, सुरेंदर, याकूब, कन्हैयालाल और अरुण कुमार ने अभिनय किया था। फिल्म में संगीत अनिल विश्वास का था। इसी फिल्म को महबूब खान ने दोबारा से तमाम संशोधनों के साथ मदर इंडिया (1957) के रूप में प्रस्तुत किया जिसे भारतीय सिनेमा में अब तक की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से एक माना जाता है। इस फिल्म में संवादों के लिए वजाहत मिर्जा और सुक्खी लाला के रूप में कन्हैयालाल और छायांकन के लिए फरदुंन ए ईरानी को महबूब खान ने दोहराया है।

आखिर महबूब खान को औरत को दोहराने की जरूरत क्यों पड़ी। 1940 में भारत आजाद नहीं हुआ था। आजादी के बाद 1957 तक भारत की पहली पंचवर्षीय योजना पूरी हो चुकी थी। दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विस्तार के साथ-साथ भारत में उद्योगों की संभावना को भी देखा जा रहा था, लेकिन इन योजनाओं के लागू हो जाने के बाद भी किसान की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया था। साहूकारों के चंगुल में फंसे किसान अपनी ही जमीन पर सांस नहीं ले पा रहे थे। बदलते भारत में कृषि समाज और किसान की बदहाली को पुनः प्रस्तुत करके महबूब खान ने मदर इंडिया के माध्यम से पूरे समाज और राजनेताओं को चेताने की कोशिश की थी।

Mother India released in 1957. (Photo: Express Archive)

मदर इंडिया का पोस्टर ही इस फिल्म की कहानी को बयान कर देता है। हल में बैल की जगह जुति हुई स्त्री को देखकर समझ आ जाता है कि यह स्त्री के संघर्ष की कथा है। गांव में नहर तो आ गई है. जो भारत के विकास को दर्शाती है लेकिन नहर का लाल पानी कृषक समाज के खूनी संघर्ष की याद दिलाता है. इसी संघर्ष से होकर कृषक समाज गुजरा है। मदर इंडिया अपने कथ्य के लिए ऑस्कर के लिए नामित हुई थी, लेकिन इसे ऑस्कर नहीं मिला। इस फिल्म को पश्चिम के तौर तरीकों से नहीं देखा जा सकता।

ठेठ भारतीय परिवेश में ही इस तथ्य को समझा जा सकता है। जिन देशों में जरा-जरा सी बात पर तलाक हो जाते हैं, वह राधा के समर्पण को कहां समझ पाएंगे। मदर इंडिया में राधा और श्यामू के विवाह के लिए सुंदर चाची ने सुक्खी लाला से उधार उठाया था।इस उधार की शर्त पर विवादास्पद है लेकिन गांव के सरपंच सुक्खी लाला के पक्ष में फैसला देते हैं। इस रकम के ब्याज के तौर पर श्यामू राधा को अपनी फ़सल का तिहाई हिस्सा सुक्खी लाला को देना होगा और पूरी रकम अपनी जगह ही खड़ी रहेगी। श्यामू राधा अपनी गरीबी मिटाने के लिए ऊसर जगह को जोतने का प्रयास करते हैं जहां जमीन में पत्थर ही पत्थर हैं। इन्हीं में से एक बड़े पत्थर के नीचे श्यामू के दोनों हाथ आ जाते हैं और कुचले जाते हैं।

श्यामू अब कुछ नहीं कर पाता। उसके मुँह में बीड़ी भी अब राधा या उसका बेटा बिरजू लगाएगा। श्यामू आत्म शर्मिंदगी में घर छोड़ जाता है। सुंदर चाची भी गुजर जाती है। राधा अपने दोनों छोटे बच्चों के साथ खेतों में काम करना जारी रखती है। सुक्खी लाला उससे उम्र में बहुत बड़ा है लेकिन उसकी नीयत राधा पर खराब है। वह राधा को खुद से शादी करने का प्रस्ताव देता है और उसको पूरा सोने से लाद देने की बात कहता है, लेकिन राधा अपनी गरीबी के कारण खुद को बेचने से इंकार कर देती है और खेतों में संघर्ष करती है।

एक तूफान पूरे गांव को और फसलों को तबाह कर देता है। राधा का तीसरा छोटा बेटा भी बाढ़ की भेंट चढ़ जाता है। सारा गांव पलायन करने लगता है, लेकिन राधा अपने मजबूत इरादों से खड़ी होकर गांव वालों को जाने से मना करती है और गांव वाले फिर से अपने को स्थापित करने में जुट जाते हैं। फिल्म आगे बढ़ती है राधा के दोनों बेटे बिरजू और रामू बड़े होकर भी मां के साथ खेतों में ही काम कर रहे होते हैं। स्थितियों में इतने वर्षों बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आता। फसल कटकर औसारे में पड़ी है। उस बाजरे में सुक्खी लाला का तिहाई हिस्सा ब्याज के रूप में अभी भी बरकरार है। बिरजू बचपन से ही ग़ुस्सेल रहा है। तब भी सुक्खी लाला को अपनी फसल में हिस्सा देने के खिलाफ था और आज भी है।

बिरजू अपने बचपन में हुए सुक्खी लाला के बर्ताव के चलते गांव की लड़कियों को छेड़ना शुरू कर देता है। खासकर सुक्खी लाला की लड़की को। आखिरकार बिरजू का गुस्सा खतरनाक हो जाता है और बिगड़ी हुई सुक्खी लाला की लड़की पर हमला कर देता है। पूरा गांव बिरजू को गांव से बाहर निकाल देता है। रामू सीधा साधा है। वह जल्द ही ब्याह भी कर लेता है। उसकी पत्नी भी घर की गरीबी में फंस कर रह जाती है। बाद में बिरजू गांव वापस आता है और सुक्खी लाला की बेटी को उठाकर ले जाने का प्रयास करता है। राधा ने पूरे गांव से वादा किया होता है कि बिरजू किसी का कोई नुकसान नहीं करेगा। जब बिरजू राधा के कहने पर नहीं रुकता तो राधा बिरजू को गोली मार देती है और बिरजू राधा की बाहों में भी दम तोड़ देता है।आखिर राधा पूरे गाँव की माँ जो हैं।

श्यामू के रूप में राजकुमार, राधा के रूप में नर्गिस, रामू के रूप में राजेंद्र कुमार, बिरजू के रूप में सुनील दत्त ,चंपा के रूप में कुमकुम, कमला के रूप में शीला नाईक, सुक्खी लाला के रूप में कन्हैया लाल छोटे बिरजू के रूप में साज़िद खान, मुकरी आदि ने मदर इंडिया में अपने अपने अभिनय का सौ प्रतिशत दिया है। इस फ़िल्म में रामू के किरदार के किये दिलीप कुमार से भी बात की गई थी, लेकिन दिलीप कुमार ने राधा के बेटे की भूमिका से इस फिल्म में इंकार कर दिया था क्योंकि उन्होंने पिछली दो फिल्मों मेला और बाबुल में उनके साथ रोमांस किया था।

नरगिस ने तो इस फिल्म में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। इस फिल्म की शूटिंग के समय नरगिस की उम्र लगभग 25-26 साल की रही होगी लेकिन एक परिपक्व ग्रामीण स्त्री का अभिनय उन्होंने अपनी पूरी क्षमता के साथ किया है। इस फ़िल्म में सभी किरदारों ने अपने अभिनय को तलाशा और तराशा है। सुक्खी लाला का अभिनय कन्हैया लाल द्वारा जो किया गया है वो भारतीय सिनेमा के लिए हमेशा यादगार रहेगा। बिरजू के बचपन के लिए साज़िद खान द्वारा किया अभिनय सभी को हमेशा के लिए याद हो जाता है, राजकुमार की बेबसी, चम्पा का पारिवारिक रूप, सुक्खी लाला की लड़की की चपलता और कुटिल मुस्कराहट इस फ़िल्म की जान हैं।

मदर इंडिया के लिए नरगिस को एकेडमी अवार्ड के लिए नामांकित किया गया था और साथ ही इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी दिया गया थ। बाद में नरगिस रात और दिन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित की गई थीं। इस फ़िल्म के जरिये कर्लोवेरी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में नरगिस को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था। मदर इंडिया को फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक मेहबूब खान को, सर्वश्रेष्ठ छायाकार का पुरस्कार फरदुंन ए ईरानी को और सर्वश्रेष्ठ ध्वनि पुरस्कार आर कौशिक को दिया गया था।

मदर इंडिया की पटकथा भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण और सराही जाने वाली फिल्मों की पटकथा थी। फ़िल्म को कहने की कला में उसके संवादों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। किसी भी फिल्म के संवाद न केवल उसके सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का निर्माण करते हैं बल्कि वह उसके मुख्य किरदारों की भावनाओं को भी व्यक्त करते हैं। फिल्म में संवाद वजाहत मिर्जा ने लिखे हैं। संवादों को लेकर महबूब और वज़ाहत दोनों में कई बार झगड़ा भी हो जाता था।

शूटिंग के दौरान कई बार ऐसा हुआ। एक बार तो नौबत यहां तक आन पड़ी कि वज़ाहत ने महबूब के पास संदेश भेज दिया कि वह संवाद नहीं लिखेंगे। तब महबूब खान ने सैयद अली रजा की मध्यस्थता से इस मामले को सुलझाया। मदर इंडिया के संवादों की संप्रेक्षणता ने इस फ़िल्म को बहुत ऊंचाई पर ले जाकर खड़ा कर दिया। वजाहत मिर्जा को नाटकीय दृश्यों की संरचना करने में महारत हासिल थी। मदर इंडिया के दृश्यों में भी उन्होंने अपना यही प्रभाव इस्तेमाल किया। फिल्म के किरदारों की खुशियां और गम के दृश्यों को उन्होंने अपने संवादों से बहुत मजबूत बनाया। सुक्खी लाला और राधा के संवाद बाढ़ के पानी से भरे घर में हों, बिरजू और चंपा के संवाद गांव की अमराई में हों, रामू और कमला के प्रेम भरे संवाद एकांत में हो अथवा बिरजू और राधा के संवाद राधा के हाथ के सोने के कंगनों को लेकर हों हर स्थान पर बहुत मार्मिक और संवेदनशील संवादों का निर्माण किया गया है।

मदर इंडिया का छायांकन फेरदुं ए ईरानी ने किया है। महबूब की फिल्मों में फेरदुं का छायांकन वैसा ही है जैसे गुरु दत्त की फिल्मों में वीके मूर्ति का रहा है।फ़िल्म की आउटडोर लोकेशन के दृश्यों में फेरदुं का कैमरा कुदरत की खूबसूरती को अपनी खूबसूरती से कैद करता है और गांव देहात के दृश्य भी पर्दे पर जीवंत हो कर उभरते हैं। ग्रामीण शादी के दृश्य हों,बैलों की रेस हो, होली के गीत में उड़ते गुलाल और नरगिस की डूबती आँखे हों, गाँव की अमराई के दृश्य हों, खेतों की फसलों के भाव हों सब कुछ जैसे सजीव।

मदर इंडिया का संगीत नौशाद साहब का दिया हुआ है। लोक संगीत विशेषकर पूरबी लोक संगीत से सजी मदर इंडिया में नौशाद ने आंचलिक धुनों को पिरो कर एक ऐसा वातावरण पूरी फिल्म में प्रस्तुत किया है कि लोक जीवन अपनी समस्त गहराईयों और धुनों के साथ दर्शकों के दिलो-दिमाग में धड़कने लगता है। पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली इस गीत के बारे में बक़ौल ‘नौशाद’ साहब ” इस गीत की रिकॉर्डिंग से पहले मुझसे महबूब साहब ने कहा नौशाद साहब ग़रीब किसान की बेटी अपने वालिदैन (मां-बाप) से विदा हो रही है। उसको बहुत कम जहेज़ (दहेज) मिला है। बैलगाड़ी में बैठी अपने पिया के घर जा रही है मगर उसे यह अहसास है कि मेरे वालिदैन ने मुझे सब कुछ दिया है।” जब मैंने महबूब साहब की यह बात सुनी तो मुझे ‘हज़रत अमीर खुसरो‘ का गीत याद आ गया, जिसके बोल हैं

“सुन्दर सारी मोरी मायके में मैली भई,
का लईके जाऊं गवनवा हाय राम …”

फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ के इस गीत में ‘हज़रत अमीर खुसरो’ के इसी ख़्याल को ‘शक़ील’ साहब ने कुछ इस तरह पेश किया।

“कोई गुन ढंग न मुझमें कोई बात है,
मोरी चुरियों की लाज अब तोरे हाथ है …”

सारी बातें तय होने के बाद महबूब साहब ने कहा, कि इस गीत को सिर्फ़ और सिर्फ़ शमशाद जी ही बख़ूबी गा सकती हैं। पर शमशाद बेग़म ने अपने पति के निधन के बाद गायिकी से दूरी बना ली थी। पर महबूब साहब और नौशाद जी के आग्रह को टाल नही सकीं।

“इस गीत को जब मैं रिकार्ड कर रहा था तो बड़ा जज़्बाती मंज़र देखने में आया। गाना रिकार्ड होते-होते गाने वालियों की आवाज़ें ग़ायब हो गईं। हम समझे कि मशीन में कोई गड़बड़ हो गई है। मगर जब गुलूकारों की तरफ़ देखा तो सब रो रही थीं। हिचकियां बंधी हुई थीं। मैं रिकार्डिंग केबिन में गया। मैंने शमशाद बेग़म और कोरस गाने वाली लड़कियों से पूछा क्या हुआ? आप सब रो क्यों रही हैं? तो शमशाद बेग़म बोलीं “नौशाद साहब मेरी बच्ची भी जवान है और शादी के लायक है। गीत गाते-गाते अपनी बच्ची की रुख़्सती का ख़्याल आ गया। ये भी तो जवान लड़कियां हैं, इनके भी जज़्बात उमड़ आए …”

नौशाद साहब

ख़ैर जब इस गीत की रिकॉर्डिंग शुरू हुई तो बक़ौल नौशाद साहब “इस गीत को जब मैं रिकार्ड कर रहा था तो बड़ा जज़्बाती मंज़र देखने में आया। गाना रिकार्ड होते-होते गाने वालियों की आवाज़ें ग़ायब हो गईं। हम समझे कि मशीन में कोई गड़बड़ हो गई है। मगर जब गुलूकारों की तरफ़ देखा तो सब रो रही थीं। हिचकियां बंधी हुई थीं। मैं रिकार्डिंग केबिन में गया। मैंने शमशाद बेग़म और कोरस गाने वाली लड़कियों से पूछा क्या हुआ? आप सब रो क्यों रही हैं? तो शमशाद बेग़म बोलीं “नौशाद साहब मेरी बच्ची भी जवान है और शादी के लायक है। गीत गाते-गाते अपनी बच्ची की रुख़्सती का ख़्याल आ गया। ये भी तो जवान लड़कियां हैं, इनके भी जज़्बात उमड़ आए …” इसी के साथ फ़िल्म के अन्य गीतों में दुख भरे दिन बीते रे भैया (मन्ना डे, रफी, शमशाद, साथी) मेघमल्हार ही सुंदर सामूहिक प्रस्तुति थी, उमरिया कटती जाए (मन्ना डे) में खमाज का लोकरंग था, पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली (शमशाद व साथी) में पीलू का पारंपरिक विदाई रूप रहा, नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे (लता) का वेदना स्वर जो ग्रामीण परिवेश से पूरित था, पूरे गांव को पलायन से रोकती हुई आवाज में लता की भैरवी पर आधारित मिठास भरी आवाज, घूंघट नहीं खोलूंगी सैयां तोरे आगे (लता) की पारंपरिक आंचलिक प्रेम की अभिव्यक्ति, होली आई रे कन्हाई (लता और शमशाद) की आवाज में होली का ऐसा लोकगीत बन पड़ा है जो आज भी होली पर सबसे अधिक बजाया जाने वाला गीत है, गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे (शमशाद, रफी व साथी) का लोकाचार आधारित सहज उदगार बन पड़ा है, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा (लता,मीना, उषा मंगेशकर) गांव की विषमताओं और कठिनाइयों से उद्भव दर्द ग्रामीण जीवन के सुख और दुख के विभिन्न पहलुओं को सरलता से दर्शाता एक नमूना बन उठा है। तक़रीबन पौने तीन घंटे की इस फ़िल्म में पूरे 42 मिनट और 30 सेकंड इन गीतों व बैकग्राउंड संगीत के हिस्से आए हैं। पर्दे पर कमोबेश हर गीत अपने होने की वजह आप बताने के साथ ही साथ कहानी को भी आगे बढ़ाने में मदद करता है।

मदर इंडिया में जो मां का विराट स्वरूप है उसी के दीदार बार-बार होते हैं। जब राधा से अपने बच्चों की भूख देखी नहीं जाती, भूख के कारण बिरजू बेहाल है अपना एक बच्चा खो देने वाली मां अपने दोनों बच्चों की भूख के आगे विवश है, हारने लगती है, तो वह लाला की कोठी पर जाती है कहती है मेरे बच्चे भूखे हैं मुझे अनाज चाहिए। लाला को मुंह मांगी मुराद मिल जाती है। कमरे में रखी देवी मां की प्रतिमा के सामने राधा अपना मंगलसूत्र और चूड़ियां उतार कर फेंक देती है। उसके बच्चे भूखे हैं पर वह अपने बच्चों का बलिदान नहीं कर पाती। अपनी लाज और नारीत्व की कीमत पर देवी मां का बोझ तो उठा सकती है पर ममता का बोझ उससे से भी नहीं उठाया जाएगा। सुक्खी लाला देवी की मूर्ति को वहां से हटाना चाहता है पर राधा चाहती है जो कुछ अनर्थ होने को है वह देवी मां की मूर्ति के सामने ही हो। वह लाला को मूर्ति नहीं हटाने देती इसी छीन झपट में राधा लाला की पिटाई कर उसकी दुर्गति बना अपनी लाज बचा कर भाग आती है। बच्चों की भूख की पीड़ा के सामने वह विचलित अवश्य होती है।

1958 में मदर इंडिया ऑस्कर के लिए नामांकित होने वाली पहली हिंदी फिल्म थी। लेकिन महबूब खान अपने मैग्नम ओपस को पूरा करने के लिए कर्ज में डूब गए थे। उनके पास ऑस्कर में जाने के लिए या अपनी फिल्म की मार्केटिंग करने के लिए पैसे नहीं थे। उन्होंने मदद के लिए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी गुहार की थी। 1958 में मदर इंडिया ऑस्कर में विदेशी फिल्म के पुरस्कार से सिर्फ एक अंक से चूक गई थी। शायद इसी कारण महबूब खान को दिल का दौरा पड़ा था। जबकि इस फिल्म को भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ने देखा था।

मदर इंडिया में भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का जो सच्चा मार्मिक रूप है उसे महबूब खान ने उजागर किया। भारत की आत्मा तो गाँवों में ही बसती है। उसी एक गाँव मे राधा एक नवविवाहिता के रूप में आती है और घर की जिम्मेदारियां उठाने में पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है, खेतों तक जाती है, बैलों की जगह स्वयं हल खींचकर अपना खेत जोतती है राधा और फिर जिंदगी भर के लिए कर्ज़ों के चक्कर में फंस जाती है। भारतीय कृषक परिवेश और भारत की जो आत्मा गांवों में बसती है उसका चित्रण इस फ़िल्म के द्वारा पूरी दुनिया पर छा गया था। मदर इंडिया को बनाने में पूरे तीन साल लगे इस दौरान कुल मिलाकर सौ दिनों तक शूटिंग भी की गयी। फ़िल्म की शूटिंग महबूब के बांद्रा स्टूडियो और दक्षिण गुजरात में उमरा नाम के एक छोटे शहर में हुई थी।फ़िल्म का कुछ हिस्सा सरार और काशीपुरा गांव में भी फिल्माया गया था। आसपास बसे ये दोनों गांव बड़ौदा जिले में आते हैं। महबूब खुद सरार गांव के रहने वाले थे।

मदर इंडिया भारत में फैली सामंती और जमींदारी व्यवस्था की गहराती जड़ को बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत करती है। सूद कैसे गरीबों की जिंदगी में दीमक की तरह लग जाता है जिसे भरने के चक्कर में वह अपना पेट तक नहीं भर पाते। जब श्यामू राधा से कहता है कि बंजर जमीन जोतने में उसके बैल मर जाएंगे तब राधा कहती है कि बैल तो बाद में मरेगा लाला हमें पहले मार डालेगा। दुनिया भर को खिलाने वाला अन्नदाता खुद कैसे खाली पेट सोता है। इसकी भयावहता को इस फिल्म के जरिए महबूब खान ने दुनिया के सामने रखा। अपनी मां के कंगन लाला की बेटी के हाथ में देखकर बिरजू को हमेशा कष्ट होता है। क्योंकि वह जानता है यह कंगन उसकी मां से जबरदस्ती लिए गए हैं। वह यह नहीं समझ पाता कि लाला ऐसा कौन सा हिसाब लगाता है जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उबर नहीं पाते हैं।

इस फिल्म में तकनीकों का भी उपयोग हुआ है। यह तकनीकी उपलब्धियां ही कही जाएगी क्योंकि उस समय यह सब करना दिखाना बिल्कुल नया था। गांव में बाढ़ का आना, भारी मात्रा में पानी बहना, बिजली का कड़कना वगैरह यह सब कुछ पर्दे के लिए नया था। मदर इंडिया नाम अमेरिकन लेखिका कैथरीन मायो द्वारा 1927 में लिखित पुस्तक मदर इंडिया से लिया गया है जिसमें उन्होंने भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति पर हमला किया था। इस पुस्तक में भारतीय स्वतंत्रता की मांग के विरोध में माया ने भारतीय महिलाओं की दुर्दशा, दलितों के प्रति भेदभाव, धर्म के नाम पर कट्टरता को अपनी पुस्तक में दर्शाया था जिससे भारतीय समाज में गुस्से का माहौल बन गया था। मायो की पुस्तकों और पुतलों को भारत भर में जलाया गया था। महात्मा गांधी ने भी इस पुस्तक का विरोध किया था। महबूब खान ने जब 1940 में औरत फिल्म बनाई थी तो अमेरिकी लेखक एस बक पर्ल की दो पुस्तकों द गुड अर्थ और द मदर से वो बहुत प्रभावित थे, जिन्हें सिडनी फ्रेंकलिन ने 1937 और 1940 में फिल्मों में रूपांतरित किया था।मेहबूब ख़ाँ ने भी यही प्रयोग अपने यहाँ किया और औरत का निर्माण किया। यही मदर इंडिया की असली प्रेरणा भी थी। मदर इंडिया भारत की पहली रीमेक भी है जो एक ही निर्देशक द्वारा बनाई गई हैं।

  • डॉ राजेश शर्मा
ias Coaching , UPSC Coaching