नया दौर : मनुष्य और मशीन के संघर्ष की कहानी

नया दौर भारत की इसी समस्या को लेकर बनाई गई फिल्म है। फिल्म में एक सीधा-साधा गांव है। गांव में रेलगाड़ी से आने वाले मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक वहां खड़े तांगे इक्के वाले पहुंचाते हैं। गांव में एक संपन्न धनाढ्य सेठ के जंगलात हैं जिसकी लकड़ियां काटकर कारखानों में लाकर लकड़िया चीरी जाती हैं। पूरे गांव के लोग काम पर लगे हुए हैं।

नया दौर से ही आशा एक मजबूत गायिका के रूप में इंडस्ट्री में जमीं


1944 में अपने कैरियर की शुरुआत लाहौर में छपने वाली एक फिल्म पत्रिका सिने हेराल्ड के पत्रकार के रूप में बीआर चोपड़ा ने की थी। लुधियाना में जन्मे बलदेव राज चोपड़ा ने बाद में फिल्में बनाना शुरू कीं। 1951 में पहली फिल्म फसाना बनायी। बीआर चोपड़ा ऐसे महान निर्माता निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने मात्र मनोरंजन के लिए ही फिल्में नहीं बनाई । उनकी फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होती थी।

LIMELIGHT BOLLYWOOD: बीआर चोपड़ा की फिल्मों में देश और समाज की ज्वलंत समस्याओं को उनके तमाम पक्षों के साथ दर्शकों के सामने रखा जाता था और बहुत ही मानवीय धरातल पर आकर समस्या के समाधान को भी बताया जाता था। इनकी एक फिल्म आई थी निकाह। इस फिल्म में मुस्लिम समाज में होने वाले तलाक की स्थितियों को दर्शाया गया था। यह फिल्म अपने समय का अवलोकन करती हुई समय से पहले की फिल्म बन जाती है. समाज में इसके बहुत बाद तीन तलाक की बेहद चुनौतीपूर्ण स्थिति आयी। इसी प्रकार जब भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई, तब बड़े पैमाने पर मशीनीकरण भी शुरू हुआ। आधुनिक युग की शुरुआत ही मशीनों के अविष्कार से आरंभ हुई है। वाष्प इंजन के आविष्कार से यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रांति हुई। माल ढोने के लिए रेलगाड़ियां दौड़ने लगी। माल की खपत भी दूर दराज़ तक होने लगी। नए बाजार स्थापित हो गए। नए बाजारों के लिए माल की डिमांड भी बढ़ने लगी। परंपरागत उद्योग धंधों की व्यवस्था सीमित थी। मशीनों द्वारा उत्पादन अधिक था तो परंपरागत उद्योग धंधे चौपट होने लगे और लोग बेरोजगार होने लगे।

”नया दौर” मूवी का पोस्टर

इन दुष्परिणामों को देखते हुए महात्मा गांधी ने भी अपने देश में लघु उद्योगों को प्रोत्साहित किया उन्होंने कहा आधुनिक मशीनों का उपयोग मनुष्य की सहायता तथा उसके प्रयत्नों को सरल बनाने के लिए किया जाना चाहिए न कि परंपरागत मशीनों के विरुद्ध उसे नीचा दिखाने के लिए या उसे हटा देने के लिए। उन्होंने यह भी कहा कि हमारे देश में ऐसी मशीनों के लिए कोई जगह नहीं है जो मानव श्रम की उपेक्षा कर मात्र कुछ हाथों में शक्ति को केंद्रित कर दें। जवाहरलाल नेहरू को जब आधुनिक भारत का नेतृत्व करने के लिए भारत उन्हें सौंपा गया तो नेहरू का मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए। 1938 की भारतीय विज्ञान कांग्रेस में भी नेहरू ने कहा था विज्ञान जीवन की वास्तविक प्रकृति है। केवल विज्ञान की ही सहायता से भूख, गरीबी ,अंधविश्वास की समस्याओं का समाधान हो सकता है।

फिल्म नया दौर पर बात करने से पहले इतनी लंबी भूमिका बनाने की वजह यह है कि नया दौर भारत की इसी समस्या को लेकर बनाई गई फिल्म है। फिल्म में एक सीधा-साधा गांव है। गांव में रेलगाड़ी से आने वाले मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक वहां खड़े तांगे इक्के वाले पहुंचाते हैं। गांव में एक संपन्न धनाढ्य सेठ के जंगलात हैं जिसकी लकड़ियां काटकर कारखानों में लाकर लकड़िया चीरी जाती हैं। पूरे गांव के लोग काम पर लगे हुए हैं। जवान बूढ़े सभी लोगों को उनकी क्षमताओं के अनुसार काम मिला हुआ है। सेठ सहृदय है अपने मुनीम को वह बूढ़ों को हल्का काम देने को कहता है, लेकिन काम से अलग कर देने को मना करता है। इक्के तांगे वाले भी अपनी मस्ती में सवारियों को ढो रहे हैं।

सेठ के तीर्थ यात्रा पर चले जाने के कारण और शहर से सेठ के पुत्र के आने से गांव का परिदृश्य ही बदल जाता है। सेठ का बेटा गांव की प्राकृतिकता में शहरी मुनाफा देखने लगता है। लकड़ी से भरे जंगलात उसको धन की कोठरियाँ नजर आने लगतीं हैं। वह बहुत जल्दी में है। ज्यादा लकड़ी कटे और ज्यादा मुनाफा हो इसके लिए वह लकड़ी काटने की आरा मशीन शहर से मंगवा लेता है। साथ ही उसको चलाने वाले कारीगर भी। कारखाने में काम करने वाला एक बड़ा मजदूर वर्ग काम से निकाल दिया जाता है। फिल्म का नायक अपना कोई मतलब न होते हुए भी इन कारीगरों की पैरवी सेठ के यहां करता है। सेठ के लड़के को यह पसंद नहीं आता।

फिल्म में एक प्रेम कहानी भी चल रही है जो जो दो अभिन्न मित्रों में अलगाव पैदा कर देती है। घायल हुआ और अलग हुआ मित्र सेठ के बेटे से मिल जाता है। अब वे दोनों मिलकर नायक को दुरुस्त करना चाहते हैं। नायक चूँकि तांगा चलाता है सो सेठ का बेटा शहर से एक मोटर गाड़ी सवारियां ढोने के लिए गांव ले आता है। मोटरगाड़ी सवारियों के लिए सस्ता सौदा और जल्द पहुंचाने का माध्यम है। तांगे वाले खाली हो जाते हैं।

मूवी नया दौर के दृश्य में मधुबाला और दिलीप कुमार

अब संघर्ष शुरू होता है इंसान के हाथों का और मशीनों का। इंसान मशीन से कैसे जीते लेकिन अपने वजूद के लिए इंसान को मशीन से भी प्रतियोगिता करनी पड़ जाती है। नायक जब फिर से सेठ के बेटे को समझाने और पूरे गांव की तकलीफ को बताने जाता है जो एक मानवीय करुणा का पक्ष है, तो मुनाफे के नशे में चूर सेठ का बेटा कहता है कि बस तो चलेगी तुम अपना तांगा उससे आगे निकाल लो। यानी इंसान को अब मशीन को हराना है। मशीन को हराने के लिए नायक दुर्गम रास्ता चुनता है।

एक ऐसा समय भी आता है कि नायक बिल्कुल अकेला हो जाता है, लेकिन नायक तो नायक है उसे तो उदाहरण प्रस्तुत करना है। वह अकेला ही फ़ावड़ा लेकर नई सड़क को बनाने निकल पड़ता है। मोटरगाड़ी को हराने के लिए स्टेशन से गांव तक की दूरी कम करने के लिए एक नई सड़क की आवश्यकता होती है। जिसे रास्ते के बीहड़ों में से पैदा करना है। इसके लिए नायक अकेला ही चल पड़ता है।अब यहां नायक का साथ प्रेम और परिवार देता है। उसके उसके बाद नायक का साथ सभी बेरोजगार हुए लोग देते हैं भले ही वह मजबूरी में ही क्यों ना हो। लेकिन अब इस संघर्ष में सब साथ हैं। यथार्थ में आधुनिक मशीन के सामने हमारे परंपरागत यंत्र घुटने देते हैं लेकिन नया दौर में लेखक और निर्देशक ने आदर्शवादी और आशावादी दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया है यहां घोड़ा गाड़ी के सामने मोटर गाड़ी घुटने टेक देती है। आधुनिक मशीन का निर्माता भी मनुष्य ही है और मनुष्य की के श्रम की महत्ता को कभी नकारा नहीं जा सकता। सामूहिक श्रम और स्वावलंबन की महत्ता के चलते गांव वाले सड़क और बीच के अवरोध में बनाए गए पुल का निर्माण कर लेते हैं और आखिरकार मशीन से जीत जाते हैं।

1957 में रिलीज हुई नया दौर के नायक दिलीप कुमार और नायिका वैजयंती माला हैं। साथ ही अजीत, जीवन, जानी वाकर, चांद उस्मानी, नजीर हुसैन, मनमोहन कृष्णा, लीला चिटनिस, प्रतिभा देवी,डेज़ी ईरानी फिल्म में अपनी अपनी भूमिकाओं में हैं। कामिल रशीद की कथा पर पटकथा अख्तर मिर्जा ने लिखी है। फिल्म की पटकथा में संवादों का तथा बहुत कसाव है। संवादों को सक्षमता के साथ किरदारों के लिए रचा गया है। एक वर्ग गरीब है दूसरा अमीर, एक तरफ हाथ हैं दूसरी तरफ मशीन लेकिन इस संघर्ष में संवादों की टकराहट नहीं है। दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह अपनी अपनी बात रख रहे हैं।

नया दौर 1957 की मदर इंडिया के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली दूसरी फिल्म रही है। बाद में तो इसने मदर इंडिया को भी पीछे छोड़ दिया। नया दौर शीर्ष दस फिल्मों में भी रही है। नया दौर को 1958 में तमिल भाषा में पट्टालिदिन सबथम (सर्वहारा वर्ग का व्रत) के नाम से डब किया गया था। इस फिल्म के लिए दिलीप कुमार ने लगातार तीसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी जीता था। इस फिल्म की नायिका के लिए पहले मधुबाला को साइन किया गया था। उन्हें अग्रिम भुगतान भी कर दिया गया था। शूटिंग भी शुरू हो गई थी जो 15 दिनों तक चलती रही। बीआर चोपड़ा आउटडोर शूटिंग के लिए यूनिट को भोपाल ले जाना चाहते थे। मधुबाला के पिता अत्ताउल्लाह खान ने इस पर आपत्ति जताई क्योंकि दिलीप साहब और मधुबाला उन दिनों अपने रोमांस के कारण मशहूर थे। मधुबाला जब सेट पर नहीं गईं तो बीआर चोपड़ा ने उन पर अदालत में मुकदमा कर दिया।

मधुबाला ने पिता का साथ दिया जबकि दिलीप कुमार ने मधुबाला और उनके पिता के खिलाफ अदालत में गवाही दी। दिलीप साहब का कोर्टरूम में अपने विशिष्ट अंदाज में ये कहना कि ”मैं उससे तब तक प्यार करूँगा जब तक वह मर नहीं जाती” सालों-साल दिलीप कुमार और मधुबाला को लेकर फ़िल्म इंडस्ट्री में गूँजता रहा। बहुत नकारात्मक प्रचार के बीच मधुबाला और उनके पिता केस हार गए। इस मामले के दौरान फिल्म को रिलीज कर दिया गया। चोपड़ा ने बाद में केस छोड़ दिया। फ़िल्म की आउटडोर शूटिंग बीआर चोपड़ा ने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद और भोपाल के ग्रामीण इलाकों में की थी। दरअसल ग्रामीण और खूबसूरत पहाड़ी इलाका होने के कारण यह फ़िल्म के लिए पूरी तरह अनुकूल था। जो रपटा फ़िल्म में दिखाया है जिस पर दिलीप कुमार तांगे को दौड़ा रहे हैं वो बुधनी के पास है। जिसे गडरिया नाला के रूप में भी जाना जाता है। करीब आठ माह तक फ़िल्म का क्रू इस इलाके में रुका था।

1957 में जब नया दौर प्रदर्शित हुई थी तब श्याम-श्वेत थी बाद में इसे रंगीन भी किया गया था। इसके लिए तीन साल और तीन करोड़ रुपये भी लगे थे, जबकि इससे फ़िल्म को कोई व्यवसायिक लाभ नहीं हुआ था।

नया दौर को समीक्षकों से भी सकारात्मक समीक्षा मिली थी जिसमें पटकथा को खूब सराहा गया था। इंडियन एक्सप्रेस ने इस फिल्म के मिशन की भावना और संक्रामक उत्साह को बहुत सराहा। फिल्म की कहानी के लिए अख्तर मिर्ज़ा को भी फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। 2001 में आयी आमिर खान की लगान फिल्म नया दौर की कहानी से ही प्रेरित थी। नया दौर अपने समय की एक क्रांतिकारी फिल्म मानी गई थी। 1957 में जब नया दौर प्रदर्शित हुई थी तब श्याम श्वेत थी बाद में इसे रंगीन भी किया गया था।इसके लिए तीन साल और तीन करोड़ रुपये भी लगे थे जबकि इससे फ़िल्म को कोई व्यवसायिक लाभ नहीं हुआ था।

यह भी पढ़ें : भारतीय कृषक समाज की एक कालजयी रचना : मदर इंडिया

साहिर लुधियानवी के लिखे गीत और ओपी नय्यर के संगीत से सजी इस फिल्म के गीत आज तक की लोगों का के होठों पर बुदबुदाते देखे जा सकते हैं। इस फिल्म का हर गाना अलग अंदाज में गाया गया है। यह देश है वीर जवानों का तो भारतीय समाज में होने वाली शादियों में बजने वाला बैंड वालों का पसंदीदा गीत रहा है। नया दौर के संगीत के लिए ओपी नैयर को भी फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। नैयर साहब ने पंजाबी रिदम पर आधारित धुनों को इस फिल्म में प्रस्तुत किया है और फिल्म के सभी गाने सुपरहिट रहे हैं। पंजाबी लोक शैली में ”उड़े जब-जब जुल्फें तेरी” (रफी-आशा), भांगड़ा शैली का ”यह देश है वीर जवानों का” (रफी-बलबीर साथी), तांगे की वही पुरानी ट्रोट शैली का राग गौड़ सारंग पर आधारित ”मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार” (रफ़ी-आशा), चुलबुली पंजाबी शैली का ”रेशमी सलवार कुर्ता जाली का” (आशा-शमशाद) उत्प्रेरक धुन में ”साथी हाथ बढ़ाना” (रफ़ी आशा साथी) और सारंगी के उत्कृष्ट प्रयोग के साथ ”आना है तो आ राह में कुछ देर नहीं है” (रफी) सहित फिल्म के सभी गीत जैसे हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गए।

इस दौर में नैयर ने शंकर जयकिशन को भी पीछे छोड़ दिया था। लेकिन फिल्म की रिकॉर्ड की बिक्री की रॉयल्टी में हिस्से की नैयर की मांग बीआर चोपड़ा को रास नहीं आई दोनों के बीच मनमुटाव हुआ और फिर बीआर चोपड़ा ने अपनी किसी भी फिल्म के लिए कभी भी नैय्यर को साइन नहीं किया। नया दौर से ही आशा एक मजबूत गायिका के रूप में इंडस्ट्री में प्रतिष्ठित हुईं। अब वह गीता दत्त की छाया नहीं बल्कि पूरी तरह से आशा थीं और लता के लिए उभरती हुई चुनौती के रूप में प्रकट हो चुकी थीं।

नया दौर की कहानी में गानों की रिदम कहीं फिट नहीं होती। दृश्य में पंजाब के गांव नहीं है। गांव मध्य प्रदेश के दिखाई देते हैं और नाच गाना पंजाबी लय पर तो यह थोड़ा चुभता तो है लेकिन संगीत इतना कर्णप्रिय है कि दूसरे ही पल वह सब भुला देता है।

नया दौर से ही आशा और ओपी नय्यर के बीच में भी प्रेम का अंकुर पनप गया था. इसके बाद उन्होंने आशा को इतनी तरज़ीह दी कि वह अपनी पुरानी गायिकाओं शमशाद और गीता को जैसे भूल ही गए हों। बाद के अपने कई इंटरव्यू में उन्होंने अपनी इस गलती को स्वीकारा भी है। ओपी नैयर के संगीत में विविधता कम थी और वही उनकी सबसे बड़ी आलोचना का कारण भी रहा। छठे दशक की लगभग हर फिल्म में पंजाबी लोक शैली की वही परिचित रिदम, तांगे की बीट पर बनाए गानों की भरमार, वही टप्पा वही पीलू का बार-बार सामंजस्य, क्लब गीतों का भी खास रिदम में एक खास नशीला अंदाज इन सब ने ओ पी नैय्यर को जैसे बांध कर रख दिया था। नया दौर की कहानी में गानों की रिदम कहीं फिट नहीं होती। दृश्य में पंजाब के गांव नहीं है। गांव मध्य प्रदेश के दिखाई देते हैं और नाच गाना पंजाबी लय पर तो यह थोड़ा चुभता तो है लेकिन संगीत इतना कर्णप्रिय है कि दूसरे ही पल वह सब भुला देता है।

इस फिल्म के गीत संगीत और कहानी में बुने गए आजादी के बाद मानव और मशीन के संघर्ष के बीच दोस्ती, प्रेम, त्याग और आजादी के बाद आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी। बीआर चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फिल्में बनाने में सिद्धहस्त थे। आम आदमी की समस्याओं को ही उन्होंने अपनी फिल्मों का विषय बनाया है लेकिन उसके साथ मनोरंजन का भी उन्होंने ध्यान रखा है। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों को तलाश करने में मदद करती रही है।

  • डॉ राजेश शर्मा

Rating: 4.5 out of 5.

News, Views & Reviews

ias Coaching , UPSC Coaching