ऐसी फिल्म जिसके टिकट के लिए 5-5 दिन लाइन में खड़े रहने को तैयार थे लोग

मुगले आज़म 5 अगस्त 1960 को रिलीज हुई थी। यह फिल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास की एक ऐसी फिल्म है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगे।
मुग़ले आज़म

डेढ़ करोड़ रूपये और दस साल की मेहनत से बनकर तैयार हुयी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म

यह बताया गया कि लोग चार-पांच दिनों तक कतार में खड़े होकर प्रतीक्षा करेंगे, और उनके परिवार के सदस्यों के माध्यम से घर से भोजन की आपूर्ति की जाएगी।

इसके बाद, मराठा मंदिर ने तीन सप्ताह के लिए बुकिंग बंद कर दी। मुग़ल-ए-आज़म 5 अगस्त 1960 को देश भर के 150 सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी, जिसने बॉलीवुड फिल्म के लिए सबसे बड़ी रिलीज़ का रिकॉर्ड बनाया था।

MUGHAL-E-AZAM FILM REVIEW : मुगले आज़म 5 अगस्त 1960 को रिलीज हुई थी। यह फिल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास की एक ऐसी फिल्म है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगे। जब फिल्में बहुत सादे तरीके से बनती थी तब मुग़ल-ए-आज़म के भव्य सेट और पर्दे पर रचा गया एक जादुई एहसास जैसे देखने वालों के दिलों दिमाग पर छा गया था। बेहतरीन निर्देशन और खूबसूरत संगीत से सजी यह फिल्म हिंदी सिनेमा का एक माइलस्टोन है।

स्टार्लिंग इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन द्वारा निर्मित और के आसिफ द्वारा निर्देशित मुग़ल-ए-आज़म 173 मिनट की फिल्म है। मुग़ल-ए-आज़म को बनने में दस साल लगे और यह अपने समय की सबसे महंगी और लोकप्रिय हैं। करीमुद्दीन आसिफ यानि के आसिफ ने मुग़ल-ए-आज़म से पहले 1944 में एक फिल्म फूल का निर्देशन किया था। मुगले आज़म की पटकथा के आसिफ़ और अमान ने मिलकर लिखी थी और संवाद लेखन में कमाल अमरोही, एहसान रिजवी और वजाहत मिर्जा का योगदान था। फिल्म का संगीत नौशाद ने दिया था और गीत लिखे थे शकील बदायूनी ने। इस फिल्म के फोटोग्राफर आर डी माथुर थे जिन्होंने शीश महल की शूटिंग द्वारा अपनी अद्वितीय प्रतिभा का प्रमाण दिया था।

सेट पर डायरेक्टर के. आसिफ और फिल्म के मुख्य कलाकार

फिल्म की कहानी में अकबर के बेटे शहजादे सलीम को दरबार की एक कनीज नादिरा से मोहब्बत हो जाती है। प्यार का यह परवान महल की दीवारों और साजिशों की निगेहबानी से होता हुआ अकबर तक पहुंचता है। अकबर ने नादिरा को अनारकली का खिताब दे रखा है। अकबर को शहजादे सलीम का एक कनीज़ के साथ का ताल्लुक़ पसंद नहीं आता कि किस तरह से एक नाचीज कनीज़ हिंदुस्तान की मल्लिका बन सकती है। अकबर अनारकली को गिरफ्तार कर कैदखाने में डलवा देते हैं। सलीम अनारकली से शादी करना चाहता है। वह बगावत कर देता है। अकबर और सलीम की सेना में जंग होती है। सलीम गिरफ्तार कर लिया जाता है।अनारकली को मौत देने से पहले उसकी आखिरी इच्छा के अनुरूप उसको एक रात सलीम के साथ बिताने की इजाज़त शहंशाह देते हैं।

बेहोशी की दवा में डूबा हुआ एक फूल अकबर अनारकली को देते हैं जिससे अनारकली शहजादे सलीम को बेहोश कर दे और अनारकली इस हुक्म की तामील भी करती है। सभी को यह बताया जाता है कि अनारकली को दीवार में चुनवा दिया गया है लेकिन अनारकली की मां ने ही अकबर को शहजादे सलीम के पैदा होने की पहली खबर दी थी तो शहंशाह ने उसे वचन दिया था कि वह जिंदगी में कुछ भी मांगे। तब अपनी बेटी की जान बख्शने को ही वह वचन के रूप में मांगती है। शहंशाह अकबर उसी रात अनारकली और उसकी मां को राज्य से बाहर भिजवा देता है।

अनारकली नादिरा शरफ उन- निस्सा ईरान राष्ट्र की थी। नूर खान अर्गन की बेटी नादिरा उस वक़्त अकबर के लाहौर वाले महल में कनीज़ थी। अकबर ने सलीम को चौदह साल के लिए सेना साम्राज्य और शासन सीखने के लिए दूर भेज दिया था। जब वापसी में वह लाहौर के मुख्य महल में आया तब उसके स्वागत में नादिरा ने महल में एक मुजरा पेश किया था नादिरा असाधारण सौंदर्य की थी। अकबर उसे (खिला अनार) अनारकली कहते थे। वर्तमान में लाहौर में जो अनारकली बाजार है वहां एक बड़ी खाई थी। अकबर ने उसे खाई में ऊपर से ईंट की दीवार चिनवाकर अनारकली को जिंदा दफन कर दिया था।

बाद में भूमिगत सुरंगों की श्रंखला से उसे बाहर निकाला था। जहांगीर यानी सलीम ने 1615 ईसवी में लाहौर ने अनारकली के लिए एक सुंदर कब्र बनवाई और उस पर यह प्रेम से भरा अभिलेख लिखवाया। मकबरे पर एक फारसी शिलालेख है जिसमें लिखा है ता कियामत शुकर जियोम करदगेट ख्वेश रा, आह गर्मन बेज बेनम रो-ए यारे ख्वेश रा (आह! क्या अपनी प्रेमिका का चेहरा एक बार फिर से देख पाता तो कयामत के दिन तक अल्लाह का शुक्रिया अदा करता।)

फिल्म मुग़ले आज़म के एक दृश्य में मीना कुमारी

बाद में सलीम का निकाह मानबाई (शाह बेगम) से हुआ था जो एक राजपूत राजकुमारी थी। ये राजा भारमल की पोती और राजा भगवंत दास की पुत्री थी। दरअसल इस विवाह के पीछे सलीम की माँ जोधाबाई की रज़ा थी। जोधाबाई आमेर की रियासत के राजपूत राजा भारमल की दासी पुत्री थीं। जो कछवाहा राजपूत थे। जोधा का विवाह अकबर से 6 फरवरी 1562 को सांभर में हुआ था। अकबर की पहली बेग़म रुक़य्या बेगम निःसंतान थी। दूसरी बेगम सलीमा भरोसेमंद सिपहसालार बैरम खाँ की विधवा थी।जोधाबाई को 1569 में सलीम की पैदाइश पर मरियम उज़ जमानी का नाम दिया गया था।

शादी के बाद सात-आठ साल बाद बड़ी मन्नतों के बाद सीकरी के पास के एक सूफ़ी फकीर शेख सलीम चिश्ती की दुआओं के असर से सलीम का जन्म फतेहपुर सीकरी गाँव में ही हुआ था। बाद में अकबर के तीन बेटे और तीन बेटियां हो गए थे। हिन्दू राजकुमारियों के साथ विवाह का जो चलन अकबर के समय में आरंभ हुआ था वो बाद में भी जारी रहा। इन्ही जोधा की भतीजी मानबाई थी जिसे बुआ जोधा के कहने पर ही सलीम से विवाह के लिए चुना गया था। यही मानबाई सलीम उर्फ जहाँगीर की मुख्य पत्नी बनी 13 फरवरी 1585 को विशिष्ट हिन्दू और मुस्लिम रस्मों से ये विवाह दो करोड़ टंकियों की शर्त पर किया गया था। 16 अगस्त 1587 को जहाँगीर के सबसे बड़े बेटे खुसरो मिर्ज़ा की माँ बनी।

1947 में भारत को आजादी मिली थी। धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ था। इस फ़िल्म के लेखन से जुड़े हुए सभी लेखक केवल मुसलमान ही नहीं थे बल्कि उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। 1950 में देश में नया संविधान स्वीकार किया था और 1952 में पहला चुनाव हुआ था। इस फिल्म के पूरे होने तक दूसरी लोकसभा भी चुनी जा चुकी थी। दो पंचवर्षीय योजना भी लागू हो चुकी थी। मुगले आज़म पर बात करते हुए इन ऐतिहासिक घटनाक्रमों को भी जानना जरूरी है क्योंकि फिल्म में जिस तरह का हिंदुस्तान पेश किया गया है उसके पीछे लोकतांत्रिक भारत के प्रति फिल्मकार की आस्था भी व्यक्त हुई है। यह सब भारत की मिली-जुली संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा में भी निहित है। मुगले आज़म केवल एक दंतकथा पर बनी प्रेम कहानी नहीं बल्कि भारत के समूचे इतिहास और सामाजिक संस्कृति को भी प्रस्तुत करती है।

मुग़ले आज़म फिल्म का पोस्टर

मुगले में आदर्श और यथार्थ, भावना और कर्तव्य, परंपरा और प्रगति जैसे मुद्दों को इतिहास की एक दंत कथा के माध्यम से पेश किया गया। इन्ही सामाजिक स्तंभो को आधार बनाकर ही उन दिनों बड़े बड़े फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। के आसिफ़ को ऐतिहासिक कथानकों पर फिल्म बनाने में विशेष दिलचस्पी रही है। मुग़ल-ए-आज़म पूरी होने के बाद के आसिफ़ ने दो फिल्मों पर काम शुरू किया था। सस्ता खून महंगा पानी और लव एंड गॉड। पहली निर्माण के शुरुआत में ही रुक गई थी और दूसरी को पूरा करने से पहले ही के आसिफ़ का इंतकाल हो गया था।लव एंड गॉड अलिफ लैला की प्रेम कहानी पर आधारित थी।

कहा तो यह जाता है कि अनारकली जैसी कोई कनीज़ इतिहास में कभी थी ही नहीं। सलीम अनारकली की प्रेमकहानी एक दंतकथा है। लेकिन अनारकली और सलीम की दंतकथा की लोकप्रियता ने कलाकारों को लगातार आकर्षित किया। 1922 में उर्दू के हास्य व्यंगकार और नाटककार इम्तियाज अली ताज़ ने इस दंतकथा को आधार बनाकर अनारकली नाम का नाटक लिखा था। ताज के नाटक पर 1928 में एक फिल्म का निर्माण भी हुआ था। यह एक मूक फ़िल्म थी और उसका नाम था दि लव्ज़ ऑफ ए मुगल प्रिंस। इस फिल्म में अकबर की भूमिका स्वयं नाटककार ताज में निभाई थी।

रमाशंकर चौधरी ने भी इसी दंतकथा पर आधार बनाकर अनारकली नामक फिल्म का निर्माण 1928 में किया। रमाशंकर चौधरी अपने जमाने के प्रसिद्ध निर्देशक और पटकथा लेखक थे। महबूब इन्हें अपने शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे। रमाशंकर चौधरी ने महबूब की प्रख्यात फिल्म रोटी (1942), आन (1952) और सन ऑफ इंडिया (1962) के लिए पटकथा भी लिखी थी। अनारकली के नाम से 1953 में बनी फिल्म में प्रदीप कुमार और बीना राय ने सलीम और अनारकली की भूमिका निभाई थी। 1953 के दो साल बाद 1955 में तमिल और तेलुगू में भी इसी नाम से फ़िल्म बनी थी।

1966 में मलयालम में भी अनारकली का निर्माण हुआ। इस तरह लगभग चार दशकों के बीच इस दंतकथा पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में सात फिल्मों का निर्माण हुआ, लेकिन इस दंतकथा पर बनने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म मुगले आज़म ही रही। मुगले आज़म के फिल्मकार को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अनारकली की कथा ऐतिहासिक दृष्टि से सच है या नहीं। कहानी पर टिप्पणी करते हुए फिल्म के आरंभ में अंग्रेजी में लिखा हुआ आता है (जब इतिहास में दंतकथा कला और कल्पना में एक दूसरे से घुलमिल जाते हैं और इस महान धरती की आत्मा अपने संपूर्ण वैभव और सौंदर्य के साथ इनमें निखर उठती है तो इन दोनों का हमारे अतीत से संबंध बन जाता है).

फ़िल्म के शुरू में हिंदुस्तान ही कहानी आरम्भ करता है और फिल्म के अंत में भी हिंदुस्तान ही दोबारा आता है और जो कुछ घटित हुआ उस पर टिप्पणी करता है। इसमें इस देश के प्रति अकबर के लगाव पर बल दिया गया है। इसमें जो हिंदुस्तान का नक्शा पर्दे पर आता है उसमें मौजूदा हिंदुस्तान है जिसमें से पाकिस्तान अलग हो चुका है। आजादी के बाद हमारे राष्ट्रवाद की संकल्पना को अकबर की उदारता और सहिष्णुता के साथ जोड़कर फिल्मकार देखना चाहता है।

यह भी पढ़ें : भारतीय कृषक समाज की एक कालजयी रचना : मदर इंडिया

इतिहासकार जीबी मेलिसन ने भी लिखा है अकबर का महान विचार यह था कि समस्त भारत का एकीकरण एक मुखिया के अधीन हो। उसने आरंभ में ही यह जान लिया था कि धार्मिक विश्वासों के एकीकरण को संपन्न करने के लिए पहली जरूरत विजय प्राप्त करने की थी, दूसरी जरूरत ईश्वर के प्रति सदैव एक सदविवेक और पूजा की सभी पद्धतियों के प्रति सम्मान की भावना थी।इसीलिए अकबर ने जिन हिंदू रानियों से विवाह किए थे उन सभी को अकबर के महल में अपनी धार्मिक परंपराओं और उत्सवों को मनाने की पूरी छूट थी। मुगले आज़म में भी कृष्ण जन्म के उत्सव को बहुत ही भव्यता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

सलीम और अनारकली का मुसलमान होना मुगले आज़म की प्रेम कथा में संघर्ष का कारण नहीं बनता। प्रेम कथा में संघर्ष का कारण बनता है उनका दो अलग-अलग वर्गों से होना। यह शासक और शासित, राजा और रंक, अमीर और गरीब और मालिक और गुलाम के बीच का संघर्ष है। जहां 1953 की अनारकली में कहानी में जोर सलीम अनारकली के प्रेम पर है वही मुगले आज़म में अकबर की उदारता और हिंदू और मुसलमान के बीच सद्भाव और सौहार्द्र पर बल है। लेकिन फिल्म का केंद्रीय विषय सलीम और अनारकली का प्रेम ही है।

इस प्रेम के बीच गुलनार बहार नाम की खलनायिका के रूप में मौजूद है जो सलीम को हासिल करने के लिए तरह-तरह के षडयंत्र करती है और अन्ततः अनारकली को सजा दिलवाने और जिंदा दफन करने में कामयाब हो जाती है। इसके विपरीत मुगले आज़म में सलीम अनारकली की प्रेम कथा में जोर इस त्रिकोण यानी सलीम अनारकली और बहार पर नहीं है यहां पर तीसरा कोण स्वयं मुगल सम्राट अकबर हैं जो इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि एक मामूली कनीज़ को हिंदुस्तान के होने वाले बादशाह की मल्लिका के रूप में कैसे स्वीकार करें। इस प्रेमकथा में भी कनीज़ अनारकली मारी जाती है और सलीम बच जाता है क्योंकि उसे हिंदुस्तान का बादशाह बनना है। इसके बाद पिता से जंग करने वाला सलीम जहाँगीर हो कर उस कनीज़ को भूल जाता है और उसकी स्मृति भी इतिहास से मिटा दी जाती है। दरअसल मुगले आज़म केवल सलीम और अनारकली की ही कहानी नहीं है ये अकबर की भी कहानी है।

फ़िल्म में एक किरदार संगतराश का है। सारे विद्रोहों के बावजूद संगतराश सलीम अनारकली के प्रेम को अपना समर्थन देता है।संगतराश समाज के बौद्धिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो तानसेन की तरह अपनी कला को दरबार की शोभा नहीं बनने देना चाहता। वो हाथी के नीचे इंसान के कुचलने के म्यूरल्स बना कर सत्ता की ताकत और निरंकुशता को प्रदर्शित करता है। वो समाज में सत्ता के प्रति विद्रोह का स्वर है। अकबर के समय में इस तरह के चरित्र का निर्माण संदेहास्पद है। संगतराश का चरित्र आज के कम्युनिज़्म के बहुत करीब दिखायी देता है जो उस वक़्त में मुश्किल रहा होगा। अभिजात्य और पूंजीवाद में फर्क है।

फिल्म के रोमांटिक सीन में दिलीप कुमार और मधुबाला

मुगले आज़म का निर्देशन और संवाद जितना महत्वपूर्ण और मजबूत है फ़िल्म का संगीत पक्ष भी बेहद शानदार है। इस फ़िल्म को शास्त्रीय और लोकगीतों की धुनों से सजाया है नोशाद साहब ने। नौशाद का जन्म लखनऊ के कंधारी बाजार इलाके में 25 दिसंबर 1919 को हुआ था। जहां तक अभिजात्य संगीत का प्रश्न है तो सबसे बड़ा नाम मुग़ल-ए-आज़म का ही रहेगा। के आसिफ़ की मुगले आज़म की योजना तो वर्षों पहले शुरू हो गई थी पर फिल्म अन्ततः जाकर 1959 में पूरी हुई। आसिफ ने पहले फिल्म के लिए गोविंद राम और फिर अनिल विश्वास को संगीतकार के रूप में चुना था। लेकिन बाद में फाइनल नाम नौशाद का ही कर के वो निश्चिंत हो गए। मुगलिया वैभव की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म के लिए भव्य संगीत तो अनिवार्य था ही और नौशाद ने भी इसके अलग-अलग रूपों में संगीत की अलग-अलग बानगियां प्रस्तुत की हैं।

इस फिल्म से जुड़ा हुआ एक बहुत ही महत्वपूर्ण किस्सा यह है कि एक दिन के आसिफ़ ने नोशाद साहब से पूछा कि फिल्म में तानसेन के लिए किसको गवाएँगे। तब नौशाद ने कहा कि तानसेन के लिए जो आज के तानसेन है यानी बड़े गुलाम अली खान साहब उनका नाम मेरे दिमाग में है लेकिन बड़े गुलाम अली खां फिल्मों में नहीं गाते। तब के आसिफ़ ने नौशाद से कहा कि खान साहब के साथ एक मीटिंग की व्यवस्था कीजिए। अब के आसिफ़ और नौशाद बड़े गुलाम अली के पास जाते हैं नौशाद खान साहब को फिल्म के बारे में बताते हैं और के आसिफ़ का भी परिचय देते हैं।

सब सुनने के बाद बड़े गुलाम अली कहते हैं कि भाई मेरे पास क्यों आए हो तब नौशाद कहते हैं कि तानसेन के लिए आपको गाना है। तब हैरत से भर कर बड़े गुलाम अली कहते हैं कि मैं तो फिल्मों में गाता नहीं। के आसिफ़ सिगरेट पिया करते थे और सिगरेट को पीते हुए बहुत जोर का सुट्टा मारते हुए और हथेलियों में चुटकी से राख को झाड़ते हुए वह खान साहब कहते हैं कि खान साहब फिल्म में गाएंगे तो आप ही। बड़े गुलाम अली खान इस बात पर बहुत गुस्सा हो जाते हैं और नौशाद को अलग से बुलाकर कहते हैं कि यह किस सिरफिरे को मेरे घर ले आए हो।

नौशाद बड़े गुलाम अली खान की काबिलियत को जानते थे वह उनसे माफी मांगते हैं। उनको सहज करते हुए बड़े गुलाम अली खां कहते हैं कि तुम घबराओ मत मैं इसको अभी ऐसा जवाब देता हूं कि ये यहां से भाग जाएगा। बड़े गुलाम अली खान साहब कमरे में आते हैं और के आसिफ़ से कहते हैं ठीक है हम गा देंगे लेकिन हम अपना पारिश्रमिक 25000 रू लेंगें। उस जमाने में गीत गाने के लिए जो फीस थी वह 500 या बहुत हद तक हजार रुपए हुआ करती थी। ये सुनकर के आसिफ अपनी पेशानी पर एक भी बल आए बिना बड़े गुलाम अली खान साहब से कहते हैं कि अरे उस्ताद जी आपने तो बहुत कम कीमत मांगी है आपका गायन तो बहुत बड़ा है और यह कहते हुए अपनी जेब से 10000 रू निकाल कर वह नज़राने के तौर पर बड़े गुलाम अली खान साहब के सामने रख देते हैं। अब बड़े गुलाम अली खान साहब फँस जाते हैं।

यह भी पढ़ें : मनुष्य और मशीन के संघर्ष की कहानी 'नया दौर'

अब कोई दिन तय होता है बड़े गुलाम अली खान को नौशाद सिचुएशन समझाते हैं और गीत रिकॉर्डिंग कर ली जाती है लेकिन वह रिकॉर्डिंग के आसिफ को दृश्य के मुताबिक पसंद नहीं आती। मुगले आज़म में सलीम अनारकली का यह दृश्य पहले ही फिल्मा लिया गया था जिसमें रात के तीसरे पहर तानसेन अपना रियाज कर रहे हैं और अनारकली महलों में से होती हुई सलीम से मिलने को जा रही है। सलीम और अनारकली अपने प्रेम में है और पूरी रात प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं में वह रात गुजारते हैं। प्रेम की इन विभिन्न अवस्थाओं को ही गायन के माध्यम से प्रस्तुत करना था। के आसिफ़ ने जो दृश्य फिल्माया था वह तो बहुत खूबसूरत था ही लेकिन उसी के अनुरूप तानसेन का गायन भी चाहिए था। अब नौशाद फिर बड़े गुलाम अली खान साहब के पास जाते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि गायन में कुछ बदलाव कर दिए जाए।

बड़े गुलाम अली खां कहते हैं कि ठीक है मुझे अब तुम वह दृश्य दिखाओ। आनन-फानन में बड़े गुलाम अली खां को फिल्म का वह दृश्य दिखाने की व्यवस्था की जाती है और वहीं पर साजिन्दे भी बुलवा लिए जाते हैं। रिकॉर्डिंग की पूरी व्यवस्था कर दी जाती है। अब कमाल यह होता है कि दृश्य को देखते हुए ही बड़े गुलाम अली खां दृश्य की अनुरूपता के हिसाब से ही अपने गायन को प्रस्तुत करते हैं। कहाँ उन्हें कोमल स्वर लगाना है, कहां तीव्र लगाना है, कहां उन्हें अलाप लेना है यह सब स्वर की लहरियों में डूबते उतराते करते हुए इस गायन को पूरा करते हैं। बड़े गुलाम अली खां का मुगले आज़म में गाया हुआ यह गीत प्रेम जोगन बन जाऊंगी भारतीय फिल्म इतिहास का एक बहुत ही सुंदर उदाहरण है।

खान साहब मधुबाला के सौंदर्य पर भी रीझ गये थे और फिर राग सोहनी में प्रेम जोगन की उन्होंने अविस्मरणीय प्रस्तुति देकर इस गीत को फिल्म संगीत के इतिहास की एक धरोहर के रूप में स्थापित कर दिया। इसी के साथ नोशाद ने 25000 रु पारिश्रमिक पर पुनः उनसे शास्त्रीय शैली में रागेश्री आधारित बधाई की शुभ दिन आयो राज दुलारा भी गवा दिया। फ़िल्म में हालांकि परिवेश मुगल काल था पर चूँकि अकबर की बेगम जोधा हिन्दू हैं और कृष्ण जन्म का उत्सव है। नौशाद ने फिल्म में 19वीं सदी के लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के दरबारी नर्तक बिंदादीन महाराज की प्रसिद्ध रचना मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे के ठुमरी अंग को भी बहुत सुंदर रूपांतर के साथ मधुबाला पर फिल्माया।

इस गीत पर ब्रजभाषा का असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। भक्ति काव्य में ब्रजभाषा का संबंध कृष्ण कथाओं से बहुत गहरा रहा है। अनारकली घाघरा कंचुकी और ओढनी पहने हुए यह गीत गाती है। यहां अनारकली अपने को राधा के रूप में और सलीम को कृष्ण के रूप में देखती है। इस तरह एक मुस्लिम बादशाह सिर्फ कला को ही बढ़ावा नहीं देता बल्कि इस्लामी रूढ़िवादिता के ऊपर उठकर एक बुतपरस्त धर्म को ना सिर्फ आदर देता है बल्कि उसे बराबरी का हक भी प्रदान करता है। मुगले आज़म में हिंदू मुस्लिम एकता की कोशिशें बहुत दूर तक जाती हैं।

राग गारा पर आधारित यह रचना इतनी लाजवाब बनी कि न केवल फ़िल्म के नृत्य निर्देशक लच्छू महाराज जो बिंदादीन के पोते थे ही भावविभोर हो गए बल्कि इस गीत के समय मुंबई में रह रहे जुल्फिकार अली भुट्टो जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने हुए हर रोज सेट पर मौजूद रहते थे। लच्छू महाराज ही ने यह सलाह दी थी कि फिल्म में ये गीत कोरस में भी होना चाहिए और उन्ही की सलाह नोशाद ने इस गीत को लता की आवाज में पुनः रिकार्ड कराया।

कोरस के लिए मंगेशकर बहनों को लिया। राग केदार पर आधारित बेमिसाल इल्तज़ा बेकस पे करम कीजिए सरकारे मदीना (लता) एक ही फ़िल्म में कृष्ण पर गीत और उसी फ़िल्म में सरकारे मदीना वो भी एक ही चरित्र पर या राग जैजैवंती पर आधारित कव्वाली नुमा गीत जब रात है ऐसी मतवाली कल सुबह का आलम क्या होगा (लता) या फिर यमन पर आधारित दुआ के रूप में खुदा निगेहबान हो तुम्हारा (लता) दरबारी आधारित कसक को प्रत्यक्ष करते मोहब्बत की झूटी कहानी पे रोये (लता) या हमें काश तुमसे मोहब्बत न होती (लता) और बिलावल पर रचित चुनौती को साकार करते ए इश्क़ यह सब दुनिया वाले (लता) इस फिल्म के पसंदीदा और जमाने तक चलने वाले गीत रहे।

मुगले आज़म का सबसे मशहूर गीत प्यार किया प्यार किया तो डरना क्या द्वारा गाया हुआ सबसे ज्यादा सराहा गया। उत्तर प्रदेश की नौशाद की सुनी कहावत “प्रेम किया क्या चोरी करी” को ही शकील बदायूँनी ने मिलती-जुलती खूबसूरत शब्दावली दी है। इसको पूरा करने में दोपहर से शुरू कर अगली सुबह तक लगातार शकील और नौशाद ने मेहनत की। मधुबाला के सैंकड़ों प्रतिबिम्बों के साथ फिल्मांकन ने इस गीत को सेलुलाइड पर भी अमर बना दिया। इस गीत में इको इफ़ेक्ट लाने के लिए नोशाद साहब ने लता की आवाज को अलग अलग टेक में रिकॉर्ड किया ताकि गाने में आवाज़ चारों तरफ से टकराकर सुनायी दे।

मुगल-ए-आजम’ की शूटिंग के दौरान एक सीन में दिलीप कुमार को मधुबाला के गाल पर चांटा मारना होता है। इसके लिए जैसे ही कैमरा और लाइट ऑन होती है, वैसे ही दिलीप कुमार को यह सीन करना था। लेकिन धोखे से दिलीप कुमार ने मधुबाला के गाल पर इतनी तेज चांटा मार दिया कि सभी लोग हैरान हो गए कि अब कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन किसी तरह से ‘के आसिफ’ ने इस परिस्थिति को संभाला।

इसी तरह वह दृश्य जिसमें सलीम अनारकली को शुतुरमुर्ग पंख से मारता है, भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे कामुक दृश्य था

इको का असर लाने के लिए लता स्टूडियो के कमरे से गाती हुई हल्के चलती हुई बाथरूम तक जाती थीं जहाँ एक अलग माइक लगा होता था और फिर वहाँ से गाती थीं। मुगले आज़म के लिए मुबारक बेगम के स्वर में हुस्न की बारात चली और मुझ पर ही चले क्यों तीर-ए-नज़र भी रिकॉर्ड किए गए थे पर उन्हें फिल्म में शामिल नहीं किया गया।

फ़िल्म में कलाकारों की केमिस्ट्री भी बहुत बेहतरीन है। अकबर के रूप में पृथ्वीराज कपूर की गंभीर आवाज़ और किरदार की गहराई बहुत असर करती है लेकिन पृथ्वीराज कपूर थियेटर के आर्टिस्ट थे सो उनकी अदायगी में थियेटर का असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। सलीम के रूप में दिलीप कुमार और अनारकली के रूप में मधुबाला की केमिस्ट्री स्क्रीन पर रुचती है। मधुबाला की आँखों में प्रेम की जो अभिव्यक्ति नज़र आती है वो चरित्र को बहुत विश्वसनीय बनाती है। ‘मुगल-ए-आजम’ की शूटिंग के दौरान एक सीन में दिलीप कुमार को मधुबाला के गाल पर चांटा मारना होता है।

इसके लिए जैसे ही कैमरा और लाइट ऑन होती है, वैसे ही दिलीप कुमार को यह सीन करना था। लेकिन धोखे से दिलीप कुमार ने मधुबाला के गाल पर इतनी तेज चांटा मार दिया कि सभी लोग हैरान हो गए कि अब कुछ गड़बड़ न हो जाए। लेकिन किसी तरह से ‘के आसिफ’ ने इस परिस्थिति को संभाला। इसी तरह वह दृश्य जिसमें सलीम अनारकली को शुतुरमुर्ग पंख से मारता है, भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे कामुक दृश्य था। मधुबाला की आँखों का उन्माद जिसमें प्रेम के साथ कामुकता के डोरे भी दिखते हैं या फिर बाग़ में मिलन की रात और पेड़ से झरे हुए फूलों के दरम्यान इश्क़। मधुबाला के बालों में उलझे फूल, कपड़ों पर उलझते फूल, कदमों में फूल। इन दृश्यों ने रोमांस की रोचकता को नयी परिभाषाएं दी हैं।

पुरस्कार के किरदार में दुर्गा खोटे ने भी पत्नी और ममतामयी माँ के चरित्र को खूब निभाया है हालाँकि वो हिंदुस्तान की महारानी के रूप में कमज़ोर पड़ी हैं। संगतराश के रूप में कुमार भी विश्वसनीय लगते हैं। अजीत का काम भीदुर्जन सिंह के रूप में बेहतरीन है। मान सिंह के रूप में मुराद ने भी अपने चरित्र के साथ न्याय किया है ।बहार के किरदार में निगार सुल्ताना ने फ़िल्म में बहुत गहरी छाप छोड़ी है। अपने हुस्न और अदायगी से एक खलनायिका होते हुए भी वो दर्शकों को पसंद आती हैं।

फ़िल्म के निर्देशक के आसिफ़ को तो वो सेट पर इतनी पसंद आ जाती हैं कि वो निगार सुल्ताना से अपनी बीवी होते हुए भी शादी कर लेते हैं। के आसिफ़ और निगार के दो बच्चे भी होते हैं। जबकि एक बच्चा निगार की पहली शादी से होता है। निगार सुल्ताना की पहली शादी भी निगार के मुगले आज़म के कारण ही टूटती है। निगार का पति नहीं चाहता था कि निगार इस फ़िल्म में काम करे।बाद में निगार के आसिफ़ को भी छोड़ देती है और के आसिफ़ की मौत के बाद उनकी जायदाद में हिस्सा लेने के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ती है।

मुगल-ए-आजम’ के सिनेमेटोग्राफर आरडी माथुर ने भी फ़िल्म को अलग अलग एंगेल्स से दर्शाया है। कैदखाने के अंधेरे, भारी भरकम जंजीरों की खनक, युद्ध के दृश्य, अकबर की सीकरी की लाव-लश्कर से भरी यात्रा, महल के रूमानी दृश्य। सबसे ज्यादा शीशमहल को फिल्माना। सैकडों बिम्बों में नाच को दिखाना। आगरा किला में बना शीश महल, मुगलकालीन हमाम है। शहंशाह शाहजहां ने इसका निर्माण वर्ष 1637 में अपने परिवार के सदस्यों के लिए तुर्की हमाम के रूप में कराया था। शाही परिवार की महिलाएं इसका उपयोग हमाम व परिधान कक्ष के रूप में करती थीं। इसकी तामीर को सीरिया से कांच मंगवाया गया था।

शीश महल की दीवार, मेहराब व छत पर छोटे-छोटे शीशे जड़े हुए हैं। इससे जरा सी रोशनी होते ही पूरा कक्ष रोशन हो उठता है। शीश महल की इसी खासियत के चलते मुगल-ए-आजम के लिए के. आसिफ ने शीश महल का सेट तैयार कराया था। इसे बनने में दो वर्ष लगे थे। इसके लिए बेल्जियम से कांच मंगाया गया था। फिल्म के लिए निर्देशक के. आसिफ ने शीश महल की तर्ज पर भव्य सेट मोहन स्टूडियो, मुंबई में तैयार कराया था। इस गाने की शूटिंग पर ही 10 लाख रुपये खर्च हुए थे, जबकि उस समय इतनी रकम में पूरी फिल्म बन जाती थी। जब शीश महल बन गया तब जब इस पर लाइट्स डाली गयीं तो पूरा शीशमहल चोन्धा गया.

सिनेमेटोग्राफी में कुछ भी नहीं आ रहा था। शूटिंग फिर बन्द कर दी गयी। अबकी विदेश से कुछ एक्सपर्ट को बुलाया गया। उन्होंने सेट के चारों तरफ रिफ्लेक्टर लगाए। अब लाइट्स उन रिफ्लेक्टर से बाउन्स करके सेट पर डाली गयी और सेट के शीशों पर मोम भी लगाया गया तब शीशमहल अपनी खूबसूरती के साथ फ़िल्म में उतारा जा सका। देश की आजादी से पूर्व मुगल-ए-आजम की शूटिंग वर्ष 1946 में शुरू हो गई थी। बंटवारे के समय दंगे होने और पैसे के अभाव में फिल्म की शूटिंग बंद हो गई।

मुगल-ए-आजम’ को लेकर कहा जाता है कि इस फिल्म को लेकर ‘के आसिफ’ जुनून की सारे हदों को पार कर गए थे।कुछ लोग कहते हैं कि ‘मुगल-ए-आजम’ के आसिफ की पहली और आखिरी मोहब्बत थी। इस फिल्म को बनाने में कई साल लग गए। ‘के आसिफ’ इस फिल्म को बनाने के लिए रुपये पानी की तरह बहा रहे थे। शापूरजी मिस्त्री इस फिल्म के फाइनांसर थे, लेकिन ‘के आसिफ’ की बढ़ते खर्चों से बहुत परेशान थे इसके चलते शाहपूरजी ने ‘के आसिफ’ को बदलकर दूसरे निर्देशक से फिल्म को पूरा करने का मन बना लिया, लेकिन फिर दिलीप कुमार के समझाने के बाद उन्होंने ऐसा नहीं किया। तीन वर्ष तक शूटिंग बंद रही। वर्ष 1950 में शूटिंग दोबारा शुरू हुई। यह फिल्म पांच अगस्त, 1960 को रिलीज हुई थी। उस समय फिल्म करीब डेढ़ करोड़ रुपये की लागत से बनी थी।

1961 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में मुगल-ए-आजम ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। साथ ही 1961 के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की सात केटेगरी में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के आसिफ़, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री मधुबाला, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक नोशाद ,सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका लता मंगेशकर सर्वश्रेष्ठ छायांकन आर डी माथुर,सर्वश्रेष्ठ गीतकार शकील बदायूँनी, सर्वश्रेष्ठ संवाद अमन, वजाहत मिर्जा, कमाल अमरोही और एहसान रिजवी ने फिल्मफेयर पुरस्कार जीते।

फ़िल्म के अंत मैं एक बार फिर हिंदुस्तान का चित्र उभरता है लेकिन यह हिंदुस्तान अकबर के समय का है। वह हिंदुस्तान जिसकी सरहदें अफगानिस्तान तक जाती है। यह हिंदुस्तान बताता है कि किस तरह हिंदुस्तान को चाहने वाले बादशाह अकबर ने अपने इंसाफ को ही सबसे ऊपर रखा है जिसमें उसने अपनी तमाम दुआओं के बाद पैदा हुई संतान को भी नहीं बख्शा है। अनारकली को जिंदगी बख़्श दी है लेकिन बदनामी को अपने दामन पर ले लिया है उस शहंशाह के लिए उसूल सबसे बड़ी चीज है।

फिल्म की बुकिंग खुलने के एक दिन पहले, मराठा मंदिर के बाहर टिकट खरीदने के लिए कथित तौर पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जमा हो गई थी जो आज अविश्वसनीय लगती है। लेकिन यह सत्य है। टिकट जो उस समय बॉलीवुड फिल्म के लिए सबसे महंगा था। बुकिंग में भारी अराजकता का अनुभव हुआ, इस हद तक कि पुलिस के हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। यह बताया गया कि लोग चार-पांच दिनों तक कतार में खड़े होकर प्रतीक्षा करेंगे, और उनके परिवार के सदस्यों के माध्यम से घर से भोजन की आपूर्ति की जाएगी। इसके बाद, मराठा मंदिर ने तीन सप्ताह के लिए बुकिंग बंद कर दी। मुग़ल-ए-आज़म 5 अगस्त 1960 को देश भर के 150 सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी, जिसने बॉलीवुड फिल्म के लिए सबसे बड़ी रिलीज़ का रिकॉर्ड बनाया था।

  • डॉ राजेश शर्मा
         यह भी पढ़ें : नसीम बानो जिन्हें फिल्मों की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया
ias Coaching , UPSC Coaching